दीन-हित बिरद पुराननि गायो ।
आरत-बन्धु, कृपालु मृदुलचित जानि सरन हौं आयो ॥१॥
तुम्हरे रिपुको अनुज बिभीषन बंस निसाचर जायो ।
सुनि गुन सील सुभाउ नाथको मैं चरनानि चितु लायो ॥२॥
जानत प्रभु दुख सुख दासिनको तातें कहि न सुनायो ।
करि करुना भरि नयन बिलोकहु तब जानौं अपनायो ॥३॥
बचन बिनीत सुनत रघुनायक हँसि करि निकट बुलायो ।
भेंट्यो हरि भरि अंक भरत ज्यौं लंकापति मन भायो ॥४॥
करपंकज सिर परसि अभय कियो, जनपर हेतु दिखायो ।
तुलसीदास रघुबीर भजन करि को न परमपद पायो ? ॥५॥