सखि ! रघुनाथ-रूप निहारु ।
सरद-बिधु रबि-सुवन मनसिज-मानभंजनिहारु ॥
स्याम सुभग सरीर जनु मन-काम पूरनिहारु ।
चारु चंदन मनहुँ मरकत सिखर लसत निहारु ॥
रुचिर उर उपबीत राजत, पदिक गजमनिहारु ।
मनहुँ सुरधनु नखत गन बिच तिमिर-भंजनिहारु ॥
बिमल पीत दुकूल दामिनि-दुति, बिनिंदनिहारु ।
बदन सुखमा सदन सोभित मदन-मोहनिहारु ॥
सकल अंग अनूप नहिं कोउ सुकबि बरननिहारु ।
दास तुलसी निरखतहि सुख लहत निरखनिहारु ॥