सत्य कहौं मेरो सहज सुभाउ ।
सुनहु सखा कपिपति लंकापति तुम्ह सन कौन दुराउ ॥१॥
सब बिधि हीन-दीन, अति जड़मति जाको कतहु~म न ठाँउ ।
आये सरन भजौं, न तजौं तिहि, यह जानत रिषिराउ ॥२॥
जिन्हके हौं हित सब प्रकार चित, नाहिन और उपाउ ।
तिन्हहिं लागि धरि देह करौं सब डरौं न सुजस नसाउ ॥३॥
पुनि पुनि भुजा उठाइ कहत हौं, सकल सभा पतिआउ ।
नहिं कोऊ प्रिय मोहि दास सम, कपट-प्रीति बहि जाउ ॥४॥
सुनि रघुपतिके बचन बिभीषन प्रेम-मगन, मन चाउ ।
तुलसीदास तजि आस-त्रास सब ऐसे प्रभु कहँ गाउ ॥५॥