रघुपति ! मोहिं संग किन लीजै ?
बार-बार, 'पुर जाहु' नाथ ! केहि कारन आयसु दीजै ॥१व
जद्यपि हौं अति अधम कुटिल मति अपराधिनको जायो ।
प्रनतपाल कोमल-सुभाव जिय जानि सरन तकि आयो ॥२॥
जो मेरे तजि चरन आन गति, कहौं ह्रदय कछु राखी ।
तौ परिहरहु दयालु दीन हित प्रभु अभिअन्तर साखी ॥३॥
ताते नाथ ! कहौं मैं पुनि पुनि प्रभु पितु मातु गुसाईं ।
भजन-हीन नरदेह बृथा खर स्वान फेरुकी नाईं ॥४॥
बन्धु-बचन सुनि श्रवन नयन राजीव नीर भरि आए ।
तुलसीदास प्रभु परम कृपा गहि बाँह भरत उर लाए ॥५॥