हरि को ललित बदन निहारु !
निपटही डाँटति निठुर ज्यों लकुट करतें डारु ॥
मंजु अंजन सहित जल-कन चुक्त लोचन-चारु ।
स्याम सारस मग मनो ससि स्त्रवत सुधा-सिंगारु ॥
सुभग उर,दधि बुंद सुंदर लखि अपनपौ वारु ।
मनहुँ मरकत मृदु सिखरपर लसत बिसद तुषारु ॥
कान्हहूँ पर सतर भौंहैं, महरि मनहिं बिचारु ।
दास तुलसी रहति क्यौं रिस निरखि नंद कुमारु ॥