कबहूँ मन बिस्त्राम न मान्यो ।
निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ-तहँ इंद्रिन तान्यो ॥
जदपि बिषय सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम-जाल अरुझान्यो ।
तदपि न तजत मूढ़, ममता बस, जानतहूँ नहिं जान्यो ॥
जन्म अनेक किये नाना बिधि कर्म कीच चित सान्यो ।
होइ न बिमल बिबेक नीर बिनु बेद पुरान बखान्यो ॥
निज हित नाथ पिता गुरु हरि सों हरषि ह्रदय नहिं आन्यो ।
तुलसीदास कब तृषा जाय सर खनतहिं जनम सिरान्यो ॥