जागिये रघुनाथ कुँवर पंछी बन बोले ॥
कंद किरन सीतल भई चकई पिय मिलन गई ।
त्रिबिध मंद चलत पवन पल्लव द्रुम डोले ॥
प्रात भानु प्रगट भयो रजनीको तिमिर गयो ।
भृंग करत गुंजगान कमलन दल खोले ॥
ब्रह्मादिक धरत ध्यान सुर-नर-मुनि करत गान ।
जागनकी बेर भई नयन पलक खोले ॥
तुलसीदास अति अनन्द निरखिके मुखारबिंद ।
दीननको देत दान भूषन बहु मोले ॥