टेरि कान्ह गोवर्धन चढ़ि गैया ।
मथि मथि पियो बारि चारिकमेम
भूख न जाति अघाति न घैया ॥१॥
सैल सिखर चढ़ि चितै चकित चित,
अति हित बचन कह्यो बल भैया ।
बाँधि लकुट पट फेरि बोलाई,
सुनि कल बेनु धेनु धुकि धैया ॥२॥
बलदाऊ देखियत दूरिते
आवति छाक पठाई मेरी मैया ।
किलकि सखा सब नचत मोर ज्यों
कूदत कपि कुरंगकी नैया ॥३॥
खेलत खात परस्पर डहकत
छीनत कहत करत रोगदैया ।
तुलसी बालकेलि सुख निरखत,
बरसत सुमन सहित सुरसैया ॥४॥