सूर्यकालानलचक्र जो स्वरशास्त्रमें कहा है उसको हम कहते हैं बडा चमत्कारी फलका देनेवाला है । तीन रेखा खडी खींचे तिनमें एकएक रेखामें एकएक त्रिशूल बनावें और तीन रेखा उत्तरसे दक्षिण तरफ आडी बनावे और दो दो रेखा उन कोणोंमें बनावे । त्रिशूल और कोणोंके बीचमें श्रृंग बनावे, दहिने बायें तरफ मध्य त्रिशूलके दंडके नीचे जिस नक्षत्रपर सूर्य होय उस नक्षत्रको वहां स्थापित करै, वाममार्गसे अभिजितसहित अठ्ठाईसों नक्षत्र स्थापित करै ॥१-३॥
अपने नामका नक्षत्र जहांपर पडै तिसका शुभाशुभ फल जानले । नीचेके तीनों नक्षत्रोंका फल चिंता वध और बंधन होता है । दोनों श्रृंगके नक्षत्रोंका फल रोग है और भंग है और जो त्रिशूलके ऊपर नव नक्षत्र हैं तिनका फल मृत्यु है और जो छः नक्षत्र मध्यके हैं उनक फल जय, लाभ और अभीष्टसिद्धि है ॥४॥५॥
यह सूर्यकालानचक्र रोगमें, विवादमें, संग्राममें और यात्रामें विचारने योग्य है । सूर्यके वेधसे मनको ताप हो, मंगलसे द्रव्यकी हानि हो, शनैश्चरके वेधसे रोग और पीडा हो, राहु केतुके वेधसे मृत्यु हो । बृहस्पतिके वेधसे लाभ, शुक्रके वेधसे रत्नका लाभ, चन्द्रमाके वेधसे स्त्रीलाभ और बुधके वेधसे सुख होता है । जन्मराशिके वेधसे यह फल कहागया है ॥६-९॥