जो लग्न बली हो तौ नवांशतुल्य आयुर्दाय लग्न देता है अर्थात् लग्नके जितने नवांश बीतगये हों उतने वर्ष और वर्तमान नवांश जितना भुक्त होगया हो, उसके कलाकरके उनको बारहसे गुणे फिर उसमें दोसौसे भागदे जो लब्ध मिलै वे महीने हुए जो शेष रहा उसे तीस ३० से गुणे और २०० दो सौसे भागदे लब्धदिन शेषको ६० साठसे गुणाकर दोसौसे भागदे लब्ध मिले वे दण्ड हुए, इसी तरह वर्ष, मास, दिन, घटी, पल लग्नका दियाहुआ आयुर्दाय हुआ और कोई आचार्य तौ राशितुल्य अर्थात् जितने राशि बीतगये हों उतने वर्ष और लग्नमें वर्तमान राशिको अंशादिंमें पूर्वोक्त त्रैराशिक रीति करके महीना आदि जो आवैं उनके सहित वही वर्षादि लग्नदत्त आयुर्दायका प्रमाण कहते हैं । मासादि लानेकी यह रीति है कि - वर्तमान राशिके भुक्तांशोंकें कला करके उस कलासमूहको बारह १२ से गुणाकर १८०० अठारह सौसे भागदे जो लब्धि मिले वे महीने हुए, और शेषको तीससे गुणाकर अठारह सौसे भागदे जो लब्धि मिले वे महीने हुए और शेषको तीससे गुणाकर अठारह सौक, भागदे तो लब्धदिन इत्यादि फल पर्यन्त कर लेवै तौ लग्नदत्त आयुर्दाय होगा । वर्गोत्तममें अपनी राशिमें व द्रेष्काणमें व नवांशमें स्थित ग्रहके आयुर्दायको दोसे गुणादैवै और अपने उच्च स्थानमें स्थित ग्रहके और वक्रीग्रहके आयुर्दायको तीनसे गुणा दैवे, मंगलको छोडकर अन्यग्रह शत्रुराशिमें स्थित हों तौ स्वदत्तायुर्दायके तीसरे भागको हरलेते हैं और जो ग्रह नीच राशिमें स्थित हों तथा शुक्र व शनैश्चरको छोडकर जो ग्रह अस्त हो वह अपने दिये हुये आयुर्दायका आधा हरलेता है और बारहवें स्थानमें स्थित पापग्रह स्वदत्तायुर्दायका सर्व भाग ग्यारहवें स्थित पापग्रह स्वदत्तायुर्दायका अर्द्धभाग व दशवें तीसरा भाग, व नववें चौथा भाग, दशवें स्थित शुभग्रह छठा भाग, नववें आठवां भाग व आठवें दशवां भाग और सातवें स्थित शुभ ग्रह स्वदत्तायुर्दायका उक्तभाग हरता है ॥१-३॥ ये हास उपरोक्त पिंडायु, नैसर्गिकायु, ग्रहायु और लग्नायुमें भी सर्वत्र करना चाहिये ॥
इति श्रीमानसागरीजन्मपत्रीपद्धतौ राजपंडितवंशीधरकृतभाषाटीकायां चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥