बिना बलज्ञानके दशादिकमका बोध नहीं होता है इस कारण उसका १ स्थानबल, २ दिकबल, ३ कालबल, ४ निसर्गबल, ५ चेष्टाबल, ६ दृग्वल तथा और शेष बलोंको भिन्न भिन्न कहताहूं ॥१॥
अपने उच्चराशिमें, अपने मित्रके स्थानमें, अपने नवांशमें, अपनी राशिमें, अपने दृकाणमें वा द्वादशांशमें कला अंशादिमें स्थित ग्रह स्थानबलको प्राप्त होता है । प्रथम पूर्वोक्तरीत्यनुसार ग्रहोंकी पांच प्रकारकी मैत्री विचारे । तदनंतर होरादि सप्तस्थानोंमें विचारे कि, अमुक ग्रह अपने घरमें है या सममें या मूलत्रिकोणके स्थानमें या मित्रके घरमें अथवा अधिमित्रिके घरमें वा शत्रुके घरमें अथवा अधिशत्रुके घरमें है इस प्रकार होराचक्रमें, द्रेष्काणचक्रमें, सप्तमांशचक्रमें, नवांशचक्र इत्यादिमें संपूर्णग्रहोंको देखकर बल स्थापित करना चाहिये यही सप्तवर्गबल होता है ॥१॥
अथ उच्चबलसाधनम् ।
जिस ग्रहका उच्चबल बनाना होय उस स्पष्टग्रहमें उसी ग्रहका नीच घटा देना शेष ६ राशीसे अधिक होय तो बारह १२ राशिमें घटायके शेषको लिप्तापिंडी करना अर्थात् राश्यादिकी विकला बनाले फिर उसमें दशहजार आठसौ १०८०० का भाग देना तो कलादि लब्ध उच्चबल होगा. यदि छः पूर्ण बचैं तौ एक पूर्णबल रखना यही क्रियाकरके शेष राश्यादिका फल सारिणीसे लेना चाहिये ॥
उदाहरण - जैसे सूर्य ००।८।५३।२० हैं इसमें इसका नीच ६।१०।०००० हीन किया तव शेष राश्यादि ५।२८।५३।२० रहा इसका लिप्ता पिंडी किया तब ६४२९८० हुई इनमें १०८०० का भाग दिया तब कलादि ५९।३७ लब्धि सूर्यका उच्चबल भया इसी प्रकार और ग्रहोंका बनाना ॥
अथाच्चरोशिफलचक्रम् ।
उच्चांशकलचक्रम् ।
कलाचक्रम् ।
मूलत्रिकोणस्वगृहादिबलम् ।
जो अपने मूलत्रिकोणमें होय उसका पैंतालीस ०।४५।० अर्थात् चतुर्थाश त्रिगुणित जानना. जो अपने घरमें ग्रह होय उसका अर्द्ध ००।३०।०० अर्थात् कला ३० बल जानना. तात्कालिक अधिमित्र होय तो बाईस २२ कला ३० पल मित्रघरमें होय तौ १५ कला समयमें होय तौ कला ७ विकला ३० शत्रुके घरमें होय तौ कला ३ विकला ४५ और जो ग्रह अधिशत्रुके घरमें होय उसका एक कला और बावन ५२ विकला बल जानना चाहिये. इसी क्रमसे होरादिबल बनाना चाहिये ॥
सप्तवर्गबलचक्रम् ।
भावादिबलम् ।
तत्रादौ युग्मायुग्मबलम् ।
शुक्र चन्द्रमा यह समराशिमें किंवा समांशमें होयँ तौ और सूर्य, मंगल, बुध, गुरु और शनि ग्रह विषमराशिमें होय तौ चरणबल ००।१५।०० देते हैं और विपरीतमें शून्यबल जानना चाहिये ॥