खलक सब रेनका सपना । समज मन कोई नाहीं आपना ॥ध्रु०॥
कठण हो लोभकी थारा । बहे सब जात संसारा ॥१॥
घङा ज्यौं नीरका फुटा । पत्ता जौं डारसे तुटा ॥२॥
ऐसी नरजान जिंदगानी । समज मन चेत अभिमान ॥३॥
भूल्यो मत देख तन गोरा । जगत्में जीवना थोरा ॥४॥
त्यजो मद लोभ चतुराई । रहो निःसंक जगमाही ॥५॥
कुटुंब परिवार सुत दारा । उसी दिन होयगा न्यारा ॥६॥
निकल जब परान जावेगा । कोई नहीं काम आवेगा ॥७॥
सदा मत जानो ये देहा । लगावो रामसे नेहा ॥८॥
काटेंगी जनमकी फांसी । कहे कबीर अविनाशी ॥९॥