केसव ! कारन कौन गुसाईं ।
जेहि अपराध असाध जानि मोहिं तजेउ अग्यकी नाईं ॥१॥
परम पुनीत संत कोमल - चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई ।
तौ कत बिप्र, ब्याध, गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई ? ॥२॥
काल, करम, गति अगति जीवकी, सब हरि ! हाथ तुम्हारे ।
सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु ! फिरउँ न तुमहिं बिसारे ॥३॥
जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे ।
मन - बच - करम नरक - सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे ॥४॥
जद्यपि नाथ उचित न होत अस, प्रभु सों करौं ढिठाई ।
तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारी निठुराई ॥५॥
भावार्थः- हे केशव ! हे स्वामी ! ऐसा क्या कारण ( अपराध ) है जिस अपराधसे आपने मुझे दुष्ट समझकर एक अनजानकी तरह छोड़ दिया ? ॥१॥
( यदि आप मुझे तो दुष्ट समझते हैं, और ) जिनके आचरण बड़े ही पवित्र हैं, जो कोमलहदय संत हैं, उन्हींको अपनाते हैं, तो फिर अजामिल, वाल्मीकि और गणिकाका उद्धार क्यों किया था ? क्या उनसे आपकी कोई खास रिश्तेदारी थी ? ॥२॥
हे हरे ! इस जीवका काल, कर्म, सुगति, दुर्गति सब कुछ आपहीके हाथ है; अत: हे प्रभो ! मेरी ममताका नाश कर कुछ ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं आपको भूलकर इधर - उधर भटकता न फिरुँ ॥३॥
यदि आप मुझे छोड़ भी देंगे, तो भी मैं तो आपहीको भजूँगा, दूसरे किसीको अपना प्रभू कभी नहीं मानूँगा, यह मेरा अटल प्रण हैं; आप नरक या स्वर्गमें जहाँ कहीं भी भेजेंगे, वहीं हे रघुनाथजी ! मन, वचन और कर्मसे मैं आपहीकी विनय करता रहूँगा ॥४॥
हे नाथ ! यद्यपि यह उचित नहीं है कि मैं प्रभुके साथ ऐसी ढिठाई करुँ, परन्तु रात - दिन आपकी निष्ठुरता देखकर यह तुलसीदास बड़ा दुःखी हो रहा है, ( इसीसे बाध्य होकर ) ऐसा कहना पड़ा ॥५॥