राख्यो राम सुस्वामी सों नीच नेह न नातो । एते अनादर हूँ तोहि ते न हातो ॥१॥
जोरे नये नाते नेह फोकट फीके । देहके दाहक , गाहक जीके ॥२॥
अपने अपनेको सब चाहत नीको । मूल दुहूँको दयालु दूलह सीको ॥३॥
जीवको जीवन प्रानको प्यारो । सुखहूको सुख रामसो बिसारो ॥४॥
कियो करैगो तोसे खलको भलो । ऐसे सुसाहब सों तू कुचाल क्यों चलो ॥५॥
तुलसी तेरी भलाई अजहूँ बूझै । राढ़उ राउत होत फिरिकै जूझै ॥६॥
भावार्थः - अरे नीच ! तूने श्रीरामचन्द्रजी - सरीखे सुन्दर स्वामीसे न प्रेम ही किया और न सम्बन्ध ही जोड़ा । परन्तु इतना अनादर करनेपर भी उन्होंनें तुझे नहीं छोड़ा ॥१॥
तूने ( जन्म - जन्मान्तरमें ) नये - नये नाते और नया - नया प्रेम जोड़ा सो सब व्यर्थ और नीरस थे तथा ( उलटे ) तेरे शरीरके जलानेवाले और प्राणोंके ग्राहक थे ॥२॥
अपना और अपनोंका तो सभी भला चाहते हैं , किन्तु दोनोंकी भलाईके मूल तो एक श्रीजानकीवल्लभ ही हैं ॥३॥
वह जीवोंके जीवन हैं , प्राणोंके प्यारे हैं और सुखके भी सुख हैं , ऐसे श्रीरामचन्द्रजीको तूने भुला दिया ! ॥४॥
जिन्होंने तेरा सदा भला किया और आगे भी जो भला ही करेंगे , अरे , ऐसे सुन्दर स्वामीके साथ तू इतनी कुचालें क्यों चला ? ॥५॥
रे तुलसी ! यदि तू अब भी समझ जाय तो तेरा भला हो सकता है , क्योंकि बार - बार लड़नेसे कायर भी शूरवीर हो जाता है ॥६॥