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हरिशंकरी पद

विनय पत्रिका - हरिशंकरी पद

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


देव

दनुज - बन - दहन, गुन - गहन, गोविंद नंदादि - आनंद - दाताऽविनाशी ।

शंभु, शिव, रु\द्र, शंकर, भयंकर, भीम, घोर, तेजायतन, क्रोध - राशी ॥१॥

अनँत, भगवंत - जगदंत - अंतक - त्रास - शमन, श्रीरमन, भुवनाभिरामं ।

भूधराधीश जगदीश ईशान, विज्ञानघन, ज्ञान - कल्यान - धामं ॥२॥

वामनाव्यक्त, पावन, परावर, विभो, प्रकट परमातमा, प्रकृति - स्वामे ।

चंद्रशेखर, शूलपाणि, हर, अनघ, अज, अमित, अविछिन्न, वृषभेश - गामी ॥३॥

नीलजलदाभ तनु श्याम, बहु काम छवि राम राजीवलोचन कृपाला ।

कंबु - कर्पूर - वपु धवल, निर्मल मौलि जटा, सुर - तटिनि, सित सुमन माला ॥४॥

वसन किंजल्कधर, चक्र - सारंग - दर - कंज - कौमोदकी अति विशाला ।

मार - करि - मत्त - मृगराज, त्रैनैन, हर, नौमि अपहरण संसार - जाला ॥५॥

कृष्ण, करुणाभवन, दवन कालीय खल, विपुल कंसादि निर्वंशकारी ।

त्रिपुर - मद - भंगकर, मत्तगज - चर्मधर, अन्धकोरग - ग्रसन पन्नगारी ॥६॥

ब्रह्म, व्यापक, अकल, सकल, पर, परमहित, ग्यान, गोतीत, गुण - वृत्ति - हर्त्ता ।

सिंधुसुत - गर्व - गिरि - वज्र, गौरीश, भव, दक्ष - मख अखिल विध्वंसकर्त्ता ॥७॥

भक्तिप्रिय, भक्तजन - कामधुक धेनु, हरि हरण दुर्घट विकट विपति भारी ।

सुखद, नर्मद, वरद, विरज, अनवद्यऽखिल, विपिन - आनंद - वीथिन - विहारी ॥८॥

रुचिर हरिशंकरी नाम - मंत्रावली द्वंद्वदुख हरनि, आनंदखानी ।

विष्णु - शिव - लोक - सोपान - सम सर्वदा वदति तुलसीदास विशद बानी ॥९॥

भावार्थः-- [ इस भजनके प्रत्येक पदमें आधेमें भगवान् श्रीविष्णुकी और आधेमें भगवान् शिवकी स्तुति की गयी है, इसीसे इसका नाम हरि - शंकरी हैं । गोसाईंजी महाराजने विष्णु और शिवकी एक साथ स्तुति करके हरिहरमें अभेद सिद्ध किया है । ]

भगवान विष्णु - दानवरुपी वनके जलानेवाले, गुणोंके वन अर्थात् सात्त्विक सदगुणोंसे सम्पन्न, इन्द्रियोंके नियन्ता, नन्द - उपनन्द आदिको आनन्द देनेवाले और अविनाशी हैं ।

भगवान शिव - शम्भु, शिव, रुद्र, शंकर आदि कल्याणकारी नामोंसे प्रसिद्ध हैं; बड़े भारी भयंकर, महान तेजस्वी और क्रोधकी राशि हैं ॥१॥

भगवान विष्णु - अनन्त हैं, छः प्रकारके ऐश्वर्योंसे युक्त हैं, जतका अन्त करनेवाले, यमकी त्रासको मिटानेवाले, लक्ष्मीजीके स्वामी और समस्त ब्रह्माण्डको आनन्द देनेवाले हैं ।

भगवान शिव - कैलासके राजा, जगतके स्वामी, ईशान, विज्ञानघन और ज्ञान तथा मोक्षके धाम हैं ॥२॥

भगवान विष्णु - वामनरुप धरनेवाले, मन - इन्द्रियोंसे अव्यक्त, पवित्र ( विकाररहित ), जड़ - चेतन और लोक - परलोकके स्वामी, साक्षात् परमात्मा और प्रकृतिके स्वामी हैं ।

भगवान शिव - मस्तकपर चन्द्रमा और हाथमें त्रिशूल धारण करनेवाले, सृष्टिके संहारकर्त्ता, पापशून्य, अजन्मा, अमेय, अखण्ड और नन्दीपर सवार होकर चलनेवाले हैं ॥३॥

भगवान विष्णु - नीले मेघके समान श्याम शरीरवाले, अनेक कामदेवोंकीसी शोभावाले, कमलके सदृश सुन्दर नेत्रवाले और समस्त विश्वमें रमनेवाले कृपालु हैं ।

भगवान शिव - शंख और कपूरके समान चिकने, श्वेत और सुगन्धित शरीरवाले, मलरहित, मस्तकपर जटाजूट और गंगाजीको धारण करनेवाले तथा सफेद पुष्पोंकी माला पहने हुए हैं ॥४॥

भगवान विष्णु - कमलके केसरके समान पीताम्बर धारण किये तथा हाथोंमें शंख, चक्र, पद्म, शार्ङ्ग धनुष और अत्यन्त विशाल कौमोदकी गदा लिये हुए हैं ।

भगवान शिव - कामदेवरुपी मतवाले हाथीको मारनेके लिये सिंहरुप, तीन नेत्रवाले और आवागमनरुपी जगतके जालका नाश करनेवाले हैं; ऐसे शिवजीको मैं प्रणाम करता हूँ ॥५॥

भगवान विष्णु - सबका आकर्षण करनेवाले, करुणाके धाम, कालिय नागके दमन करनेवाले और कंस आदि अनेक दुष्टोंको निर्वंश करनेवाले हैं ।

भगवान शिव - त्रिपुरासुरका मद चूर्ण करनेवाले, मतवाले हाथीका चर्म धारण करनेवाले और अन्धकासुररुपी सर्पको ग्रसनेके लिये गरुड़ हैं ॥६॥

भगवान विष्णु - पूर्णब्रह्म, चराचरमें व्यापक, कलारहित, सबसे श्रेष्ठ, परम हितैषी, ज्ञानस्वरुप, अन्तः करणरुपी भीतरी और श्रवणादि बाहरी इन्द्रियोंसे अतीत और तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका हरण करनेवाले हैं ।

भगवान शिव - जलन्धरके गर्वरुपी पर्वतको तोड़नेके लिये वज्ररुप, पार्वतीके पति, संसारके उत्पत्तिस्थान हैं और दक्षके सम्पूर्ण यज्ञके विध्वंस करनेवाले हैं ॥७॥

भगवान विष्णु - जिनको भक्ति ही प्यारी है, जो भक्तोंके मनोरथ पूर्ण करनेके लिये कामधेनुके समान हैं और उनकी बड़ी - बड़ी कठिन तथा भयानक विपत्तियोंके हरनेवाले, अतएव हरि कहलानेवाले हैं ।

भगवान शिव - सुख, आनन्द और मनचाहा वर देनेवाले, विरक्त, सभ प्रकारके विकारों एवं दोषोंसे रहित और आनन्दवन काशीकी गलियोंमें विहार करनेवाले हैं ॥८॥

यह हरि और शंकरके नाम - मन्त्रोंकी सुन्दर पंक्तियाँ राग - द्वेषादि द्वन्द्वोंसे जनित दुःखको हरनेवाली, आनन्दकी खानि और विष्णु तथा शिवलोकमें जानेके लिये सदा सीढ़ीके समान हैं, यह बात तुलसीदास शुध वाणीसे कहता हैं ॥९॥

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Last Updated : August 25, 2009

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