सहज सनेही रामसों तैं कियो न सहज सनेह ।
तातें भव - भाजन भयो , सुनु अजहुँ सिखावन एह ॥१॥
ज्यों मुख मुकुर बिलोकिये अरु चित्त न रहै अनुहारि ।
त्यों सेवतहुँ न आपने , ये मातु - पिता , सुत - नारि ॥२॥
दै दै सुमन तिल बासिकै , अरु खरि परिहरि रस लेत ।
स्वारथ हित भूतल भरे , मन मेचक , तन सेत ॥३॥
करि बीत्यो , अब करतु है करिबे हित मीत अपार ।
कबहुँ न कोउ रघुबीर सो नेह निबाहनिहार ॥४॥
जासों सब नातों फुरै , तासों न करी पहिचानि ।
तातें कछू समुझ्यो नहीं , कहा लाभ कह हानि ॥५॥
साँचो जान्यो झूठको , झूठे कहँ साँचो जानि ।
को न गयो , को जात है , को न जैहै करि हितहानि ॥६॥
बेद कह्यो , बुध कहत हैं , अरु हौंहुँ कहत हौं टेरि ।
तुलसी प्रभु साँचो हितू , तू हियकी आँखिन हेरि ॥७॥
भावार्थः - तूने स्वभावसे ही स्नेह करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीसे स्वाभाविक स्नेह नहीं किया । इसीसे तू संसारी हो गया है ( जन्म - मरणके चक्रमें पड़ा है ), परन्तु अब भी यह शिक्षा सुन ॥१॥
जैसे दर्पणमें मुखका प्रतिविम्ब दीख पड़ता है , पर वह मुख वास्तवमें दर्पणके अंदर नहीं होता , वैसे ही ये माता , पिता , पुत्र और स्त्री सेवा करते हुए भी अपने नहीं हैं ( मायारुपी दर्पणके साथ तादात्म्य होनेसे ही इनमें अपना भाव दीखता है ) ॥२॥
( संसारका सम्बन्ध तो स्वार्थका है ) जैसे तिलोंमें फूल रख - रखकर उन्हें सुगन्धमय बनाते हैं किन्तु तेल निकाल लेनेपर खलीकों व्यर्थ समझकर फेंक देते हैं , वैसे ही सम्बन्धियोंकी दशा है ( अर्थात् जबतक स्वार्थसाधन होता है तबतक संगी रहते हैं और सम्मान करते हैं , फिर कोई बात भी नहीं पूछता ) । इस पृथ्वीपर ऐसे स्वार्थी भरे पड़े हैं , जिनका मन काला है , और शरीर सफेद है ॥३॥
तूने कितने मित्र बनाये , कितने बना रहा है और कितने अभी बनायेगा ; किन्तु श्रीरघुनाथजी - जैसा प्रेमको ( सदा एकरस ) निभानेवाला मित्र कभी कोई मिलनेका ही नहीं ॥४॥
अरे ! जिस ( श्रीभगवान ) - के कारण ही सारे नाते सच्चे प्रतीत होते हैं , उसके साथ तूने ( आजतक ) कभी पहचान ही नहीं की ! इसलिये तू अभीतक इस तत्त्वको नहीं समझ पाया कि ( वास्तविक ) लाभ क्या है और हानि क्या है ॥५॥
जिन्होंने मिथ्या ( जगत ) - को सत्य और सत्य ( परमात्मा ) - को मिथ्या ( असत ) मान रखा है , उनमें ऐसा कौन है जो अपने यथार्थ कल्याणका नाश करके ( संसारसे ) नहीं चला गया , नहीं जा रहा है , और नहीं जायगा ( सारांश , ऐसे मूढ़ जीव बिना ही परमात्माको प्राप्त किये व्यर्थ ही मनुष्य - जीवनको खो देते हैं ) ॥६॥
वेदोंने कहा है और विद्वन् भी कहते हैं तथा मैं भी पुकारकर कह रहा हूँ कि तुलसीके स्वामी श्रीरघुनाथजी ही सच्चे हितू हैं । तू तनिक अपने हदयके नेत्रोंसे देख ॥७॥