ते नर नरकरुप जीवत जग भव - भंजन - पद - बिमुख अभागी ।
निसिबासर रुचिपाप असुचिमन, खलमति - मलिन, निगमपथ - त्यागी ॥१॥
नहिं सतसंग भजन नहिं हरिको, स्रवन न राम - कथा - अनुरागी ।
सुत - बित - दार - भवन - ममता - निसि सोवत अति, न कबहुँ मति जागी ॥२॥
तुलसिदास हरिनाम - सुधा तजि, सठ हठि पियत बिषय - बिष माँगी ।
सूकर - स्वान - सृगाल - सरिस जन, जनमत जगत जननि - दुख लागी ॥३॥
भावार्थः- वे अभागे मनुष्य संसारमें नरकरुप होकर जी रहे हैं, जो जन्म - मरणरुप भवका भंजन करनेवाले श्रीभगवानके चरणोंसे विमुख हैं । उनकी रुचि रात - दिन पापोंमें ही लगी रहती है । उनका मन अशुद्ध रहता है । उन दुष्टोंकी बुद्धि मलिन रहती है, और वे वेदोक्त मार्गको छोड़े हुए हैं ॥१॥
न तो वे संतोंका संग ही करते हैं, न भगवद्भजन करते हैं और न उनके कानोंको श्रीरामकी कथा प्यारी लगती है । वे तो बस, सदा - सर्वदा स्त्री - पुन - धन और मकान आदिकी ममतारुपी रात्रिमें ही अचेत सोते रहते हैं । उनकी बुद्धि ( इस ' मेरे - मेरे ' की निद्रासे ) कभी जागती ही नहीं ॥२॥
हे तुलसीदास ! जो दुष्ट श्रीहरि - नाम - रुपी अमृतको छोड़कर हठपूर्वक विषयरुपी जहर माँग - माँगकर ( धन - पुत्र आदिकी कामना करके ) पीते हैं, वे मनुष्य सूअर, कुत्ते और गीदड़के समान जगतमें केवल अपनी माँको दुःख देनेके लिये ही जन्म लेते हैं ॥३॥