रघुपति - भगति करत कठिनाई ।
कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई ॥१॥
जो जेहि कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल - प्रवाह सुरसरी बहै गज भारी ॥२॥
ज्यों सर्करा मिलै सिकता महँ , बलतें न कोउ बिलगावै ।
अति रसग्य सूच्छम पिपीलिका , बिनु प्रयास ही पावै ॥३॥
सकल दृश्य निज उदर मेलि , सोवै निद्रा तजि जोगी ।
सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख , अतिसय द्वैत - बियोगी ॥४॥
सोक मोह भय हरष दिवस - निसि देस - काल तहँ नाहीं ।
तुलसिदास यहि दसाहीन संसय निरमूल न जाहीं ॥५॥
भावार्थः - श्रीरघुनाथजीकी भक्ति करनेमें बड़ी कठिनता है । कहना तो सहज हैं , पर उसका करना कठिन । इसे वही जानता है जिससे वह करते बन गयी ॥१॥
जो जिस कलामें चतुर हैं , उसीके लिये वह सरल और सदा सुख देनेवाली है । जैसे ( छोटी - सी ) मछली तो गंगाजीकी धाराके सामने चली जाती है , पर बड़ा भारी हाथी बह जाता है ( क्योंकि मछलीकी तरह उसमें तैरना नहीं जानता ॥२॥
जैसे यदि धूलमें चीनी मिल जाय तो उसे कोई भी जोर लगाकर अलग नहीं कर सकता , किन्तु उसके रसको जाननेवाली एक छोटी - सी चींटी उसे अनायास ही ( अलग करके ) पा जाती हैं ॥३॥
जो योगी दृश्यमात्रको अपने पेटमें रख ( ब्रह्ममें मायाको समेटकर , परमेश्वररुप कारणमें कार्यरुप जगतका लय करके ) ( अज्ञान ) निद्राको त्यागकर सोता है , वही द्वैतसे आत्यन्तिकरुपसे मुक्त हुआ पुरुष भगवानके परम पदके परमानन्दकी प्रत्यक्ष अनुभूति कर सकता है ॥४॥
इस अवस्थामें शोक , मोह , भय , हर्ष , दिन - रात और देश - काल नहीं रह जाते । ( एक सच्चिदानन्दघन प्रभु ही रह जाता है । ) किन्तु हे तुलसीदास ! जबतक इस दशाकी प्राप्ति नहीं होती , तबतक संशयका समूल नाश नहीं होता ॥५॥