रघुबर ! रावरि यहै बड़ाई ।
निदरि गनी आदर गरीबपर , करत कृपा अधिकाई ॥१॥
थके देव साधन करि सब , सपनेहु नहिं देत दिखाई ।
केवट कुटिल भालु कपि कौनप , कियो सकल सँग भाई ॥२॥
मिलि मुनिबृंद फिरत दंडक बन , सो चरचौ न चलाई ।
बारहि बार गीध सबरीकी बरनत प्रीति सुहाई ॥३॥
स्वान कहे तें कियो पुर बाहिर , जती गयंद चढ़ाई ।
तिय - निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नगर बसाई ॥४॥
यहि दरबार दीनको आदर , रीति सदा चलि आई ।
दीनदयालु दीन तुलसीकी काहु न सुरति कराई ॥५॥
भावार्थः - हे रघुश्रेष्ठ ! आपकी यही बड़ाई है कि आप धनियोंका धनान्धों या गण्यमान्योंका ( धन , विद्या या पदके अभिमानियोंका ) अनादर कर गरीबोंका आदर करते हैं , उनपर बड़ी कृपा करते हैं ॥१॥
देवता अनेक साधन करके थक गये , पर उन्हें आपने स्वप्नमें भी दर्शन न दिया , किन्तु निषाद एवं कपटी रीछ , बंदर और राक्षस ( विभीषण ) - के साथ भाई - चारा कर लिया , ( इसीलिये कि ये सब दीन - निरभिमानी थे ) ॥२॥
दण्डकारण्यमें घूमते तो फिर मुनियोंके साथ हिलमिलकर , परन्तु उनकी तो चर्चातक नहीं चलायी , लेकिन गीध ( जटायु ) और शबरीके प्रेमका बारंबार सुन्दर बखान करना आपको सदा अच्छा लगा । ( यहाँ भी वही दीनता और निरभिमानकी बात है ) ॥३॥
कुत्तेके कहनेपर संन्यासीको तो हाथीपर चढ़ाकर नगरके बाहर निकाल दिया और श्रीसीताजीकी झूठी निन्दा करनेवाले मूर्ख धोबीको अपनी प्रजा समझकर , नीतिसे अपने नगर अयोध्यामें बसा लिया ( क्योंकि वह दीन - गरीब था ) ॥४॥
( इससे सिद्ध है कि ) इस दरबारमें , रामराज्यमें , दीनोंके आदर करनेकी रीति सदासे चली आ रही है । किन्तु हे दीनदयालु ! ( क्या ) इस दीन तुलसीका ध्यान आपको ( आजतक ) किसीने नहीं दिलाया ॥५॥