काजु कहा नरतनु धरि सार्यो ।
पर - उपकार सार श्रुतिको जो , सो धोखेहु न बिचार्यो ॥१॥
द्वैत मूल , भय - सूल , सोक - फल , भवतरु टरै न टार्यो ।
रामभजन - तीछन कुठार लै सो नहिं काटि निवार्यो ॥२॥
संसय - सिंधु नाम बोहित भजि निज आतमा न तार्यो ।
जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिं हार्यो ॥३॥
देखि आनकी सहज संपदा द्वेष - अनल मन - जार्यो ।
सम , दम , दया , दीन - पालन , सीतल हिय हरि न सँभार्यो ॥४॥
प्रभु गुरु पिता सखा रघुपति तैं मन क्रम बचन बिसार्यो ।
तुलसिदास यहि आस , सरन राखिहि जेहि गीध उधार्यो ॥५॥
भावार्थः - तूने मनुष्य - शरीर धारणकर कौन - सा कार्य सिद्ध किया ? जो परोपकार वेदोंका सार है , उसे तूने भूलकर भी नहीं विचारा ॥१॥
यह संसाररुपी वृक्ष , जिसकी द्वैत अर्थात् भेदबुद्धि जड़ है , जिसमें भयरुपी काँटे है , और दुःख जिसका फल है , हटानेपर भी नहीं हटता ( क्योंकि जबतक इसकी द्वैतरुपी अज्ञानकी जड़ नहीं कटती तबतक इसका हटना असम्भव है ) । यह केवल रामजीके भजनरुपी तेज कुल्हाड़ीसे ही कटता है , परन्तु तूने भजन करके उसे नहीं काटा ॥२॥
संशय ( अज्ञान ) - रुपी समुद्रसे पार जानेके लिये राम - नाम नौकारुप है , सो उसका सेवन कर तूने अपने आत्माको नहीं तारा । अनेक जन्मतक , ज्ञानहीन रहकर बहुत - सी योनियोंमें घूमता हुआ भी तू अबतक नहीं थका ॥३॥
दूसरोंकी सहज सम्पत्ति देखकर द्वेषरुपी अग्निमें मनको जलाता रहा ( हाय ! उसके धनका नाश क्यों नहीं होता ? इसी द्वेषाग्निसे जलता रहा ) । शम , दम , दया और दीनोंका पालन करते हुए हदयको शान्त कर भगवानका स्मरण नहीं किया ॥४॥
तूने मनसे , कर्मसे और वचनसे अपने ( सच्चे ) स्वामी , गुरु , पिता और मित्र उन श्रीरघुनाथजीको भुला दिया । हे तुलसीदास ! अब तो यही आशा है कि जिसने जटायु गीधको तार दिया था , वही तुझे भी अपनी शरणमें रखेंगे ॥५॥