अस कछु समुझि परत रघुराया !
बिनु तव कृपा दयालु ! दास - हित ! मोह न छूटै माया ॥१॥
बाक्य - ग्यान अत्यंत निपुन भव - पार न पावै कोई ।
निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत्त नहिं होई ॥२॥
जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन - हीन दुख पावै ।
चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ॥३॥
षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखानै ।
बिनु बोले संतोष - जनित सुख खाइ सोइ पै जानै ॥४॥
जबलगि नहिं निज हदि प्रकास, अरु बिषय - आस मनमाहीं ।
तुलसिदास तबलगि जग - जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाही ॥५॥
भावार्थः- हे रघुनाथजी ! मुझे कुछ ऐसा समझ पड़ता है कि हे दयालु ! हे सेवक - हितकारी ! तुम्हारी कृपाके बिना न तो मोह ही दूर हो सकता है और न माया ही छूटती हैं ॥१॥
जैसे रातके समय घरमें केवल दीपककी बातें करनेसे अँधेरा दूर नहीं होता, वैसे ही कोई वाचक ज्ञानमें कितना ही निपुण क्यों न हो, संसार - सागरको पार नहीं कर सकता ॥२॥
जैसे कोई एक दीन, दुःखिया, भोजनके अभावमें भूखके मारे दुःख पा रहा हो उओर कोई उसके घरमें कल्पवृक्ष तथा कामधेनुके चित्र लिख - लिखकर उसकी विपत्ति दूर करना चाहे तो कभी दूर नहीं हो सकती । वैसे ही केवल शास्त्रोंकी बातोंसे ही मोह नहीं मिटता ॥३॥
कोई मनुष्य रात - दिन अनेक प्रकारके षटरस भोजनोंपर व्याख्यान देता रहे; तथापि भोजन करनेपर भूखकी निवृत्ति होनेसे जो सन्तुष्टि होती है उसके सुखको तो वही जानता है जिसने बिना ही कुछ बोले वास्तवमें भोजन कर लिया है । ( इसी प्रकार कोरी व्याख्यानबाजीसे कुछ नहीं होता, करनेपर कार्यसिद्धि होती हैं ) ॥४॥
जबतक अपने हदयमें तत्त्व - ज्ञानका प्रकाश नहीं हुआ और मनमें विषयोंकी आशा बनी हुई है, तबतक हे तुलसीदास ! इन जगतकी योनियोंमें भटकना ही पड़ेगा, सुख सपनेमें भी नहीं मिलेगा ॥५॥