तऊ न मेरे अघ - अवगुन गनिहैं ।
जौ जमराज काज सब परिहरि, इहै ख्याल उर अनिहैं ॥१॥
चलिहैं छूटि पुंज पापिनके, असमंजस जिय जनिहैं ।
देखि खलल अधिकार प्रभूसों ( मेरी ) भूरि भलाई भनिहैं ॥२॥
हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत - सिरोमनि मनिहैं ।
ज्यों त्यों तुलसिदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं ॥३॥
भावार्थः- हे श्रीरामजी ! यदि यमराज सब कामकाज छोड़कर केवल मेरे ही पापों और दोषोंके हिसाब - किताबका खयाल करने लगेंगे, तब भी उनको गिन नहीं सकेंगे ( क्योंकि मेरे पापोंकी कोई सीमा नही है ) ॥१॥
( और जब वह मेरे हिसाबमें लग जायँगे, तब उन्हें इधर उलझे हुए समझकर ) पापियोंके दल - के - दल छूटकर भाग जायँगे । इससे उनके मनमें बड़ी चिन्ता होगी । ( मेरे कारणसे ) अपने अधिकारमें बाधा पहुँचते देखकर ( भगवानके दरबारमें अपनेको निर्दोष साबित करनेके लिये ) वह आपके सामने मेरी बहुत बड़ाई कर देंगे ( कहेंगे कि तुलसीदास आपका भक्त है, इसने कोई पाप नहीं किया, आपके भजनके प्रतापसे इसने दूसरे पापियोंको भी पापके बन्धनसे छुड़ा दिया ) ॥२॥
तब आप हँसकर अपने भक्त यमराजका विश्वास कर लेंगे और मुझे भक्तोंमें शिरोमणि मान लेंगे । बात यह है कि हे कोसलेश ! जैसे - तैसे आपको मुझे अपनाना ही पड़ेगा ॥३॥