मैं तोहिं अब जान्यो संसार ।
बाँधि न सकहिं मोहि हरिके बल , प्रगट कपट - आगार ॥१॥
देखत ही कमनीय , कछू नाहिंन पुनि किये बिचार ।
ज्यों कदलीतरु - मध्य निहारत , कबहुँ न निकसत सार ॥२॥
तेरे लिये जनम अनेक मैं फिरत न पायों पार ।
महामोह - मृगजल - सरिता महँ बोर्यो हौं बारहिं बार ॥३॥
सुनु खल ! छल - बल कोटि किये बस होहिं न भगत उदार ।
सहित सहाय तहाँ बसि अब , जेहि हदय न नंदकुमार ॥४॥
तासों करहु चातुरी जो नहिं जानै मरम तुम्हार ।
सो परि डरै मरै रजु - अहि तें , बूझै नहिं ब्यवहार ॥५॥
निज हित सुनु सठ ! हठ न करहि , जो चहहि कुसल परिवार ।
तुलसिदास प्रभुके दासनि तजि भजहि जहाँ मद मार ॥६॥
भावार्थः - अरे ( मायावी ) संसार ! अब मैंने तुझे ( यथार्थ ) जान लिया , तू प्रत्यक्ष ही कपटका घर है , पर अब मुझे भगवानका बल मिल गया है इससे तू ( अपने कपटजालमें ) मुझको नहीं बाँध सकता , ( परमात्माके बलका आश्रय लेते ही परमात्माकी मायासे बना हुआ संसार सर्वथा मिट गया , इसलिये अब मैं संसारके मायावी फंदेमें नहीं आ सकता ) ॥१॥
तू देखनेमात्रको ही सुन्दर है , पर विचार करनेपर तो कुछ भी नहीं है , वस्तुतः तेरा अस्तित्व ही नहीं है । जैसे केलेके पेड़को देखो , उसमेंसे कभी गूदा निकलता ही नहीं ( कितना ही छीलो , छिलका - ही - छिलका निकलता जायगा । यही दशा संसारकी है ) ॥२॥
अरे , तेरे लिये मैं अनेक जन्मोंमें भटकता फिरा , अनेक योनियोंमें गया , पर तेरा पार नहीं पाया । तू मुझे महामोहरुपी मृगतृष्णाकी नदीमें बार - बार डुबाता ही रहा ॥३॥
अरे दुष्ट ! सुन , तू चाहे करोड़ों प्रकारके छल - बल कर ; पर भगवानका परम - भक्त तेरे वशमें नहीं हो सकता , तू अपनी ( विषयोंकी ) सेनासमेत वहीं जाकर डेरा डाल , जिस हदयमें नन्दनन्दन श्रीकृष्ण भगवानका वास न हो ( जिस भक्तके हदयमें भगवानका वास है वहाँ तेरा क्या काम ? ) ॥४॥
जो तेरा भेद न जानता हो , उसीके साथ अपनी कपटकी चाल चल । वही रस्सीरुपी साँपके डरकर मरेगा , जो उसके भेदको न जानता होगा ॥५॥
अरे शठ ! अपने हितकी बात सुन , जो तू कुटुम्बसमेत अपनी खैर चाहता है तो हठ न कर । तुलसीदासके प्रभु श्रीरघुनाथजीके सेवकोंको छोड़कर तू वहीं भाज जा , जहाँ अहंकार और काम रहते हों ( जहाँ राम रहते हैं वहाँ अहंकार तथा काम नहीं ; और जहाँ ये नहीं , वहाँ मायाका संसार कैसे रह सकता है ? ) ॥६॥