कबहुँ सो कर - सरोज रघुनायक ! धरिहौ नाथ सीस मेरे ।
जेहि कर अभय किये जन आरत, बारक बिबस नाम टेरे ॥१॥
जेहि कर - कमल कठोर संभुधनु भंजि जनक - संसय मेट्यो ।
जेहि कर - कमल उठाइ बंधु ज्यों, परम प्रीती केवट भेंट्यो ॥२॥
जेहि कर - कमल कृपालु गीधकहँ, पिंड देइ निजधाम दियो ।
जेहि कर बालि बिदारि दास - हित, कपिकुल - पति सुग्रीव कियो ॥३॥
आयो सरन सभीत बिभीषन जेहि कर - कमल तिलक कीन्हों ।
जेहि कर गहि सर चाप असुर हति, अभयदान देवन्ह दीन्हों ॥४॥
सीतल सुखद छाँह जेहि करकी, मेटति पाप, ताप, माया ।
निसि - बासर तेहि कर सरोजकी, चाहत तुलसिदास छाया ॥५॥
भावार्थः- हे रघुनाथजी ! हे स्वामी ! क्या आप कभी अपने उस करमकलको मेरे माथेपर रखेंगे, जिससे आपने, परतन्त्रतावश एक बार आपका नाम लेकर पुकार करनेवाले आर्त्त भक्तोंको अभय कर दिया था ॥१॥
जिस कर - कमलसे महादेवजीका कठोर धनुष तोड़कर आपने महाराज जनकका सन्देह दूर किया था और जिस कर - कमलसे गुह - निषादको उठाकर भाईके समान बड़े ही प्रेमसे हदयसे लगा लिया था ॥२॥
हे कृपालु ! जिस कर - कमलसे आपने ( जटायु ) गीधको ( पिताके समान ) पिण्ड - दान देकर अपना परम धाम दिया था, और जिस हाथसे, अपने दासके लिये बालिको मारकर, सुग्रीवको बंदरोंके कुलका राजा बन दिया था ॥३॥
जिस करकमलसे आपने भयभीत शरणागत विभीषणका राज्याभिषेक किया था और जिस हाथसे धनुष - बाण चढ़ा राक्षसोंका विनाश कर देवताओंको अभयदान दिया था ॥४॥
तथा जिस कर - कमलकी शीतल और सुखदायक छाया पाप, सन्ताप और मायाका नाश कर डालती है, हे प्रभु ! आपके उसी कर - कमलकी छाया यह तुलसीदास - रात दिन चाहा करता है ॥५॥