नाचत ही निसि - दिवस मर्यो ।
तब ही ते न भयो हरि थिर जबतें जिव नाम धर्यो ॥१॥
बहु बासना बिबिध कंचुकि भूषन लोभादि भर्यो ।
चर अरु अचर गगन जल थलमें, कौन न स्वाँग कर्यो ॥२॥
देव - दनुज, मुनि, नाग, मनुज नहिं जाँचत कोउ उबर्यो ।
मेरो दुसह दरिद्र, दोष, दुख काहू तौ न हर्यो ॥३॥
थके नयन, पद, पानि, सुमति, बल, संग सकल बिछुरयो ।
अब रघुनाथ सरन आयो जन, भव - भय बिकल डर्यो ॥४॥
जेहि गुनतें बस होहु रीझि करि, सो मोहि सब बिसर्यो ।
तुलसिदास निज भवन - द्वार प्रभु दीजै रहन पर्यो ॥५॥
भावार्थः-- रात - दिन नाचते - नाचते ही मरा ! हे हरे ! जबसे आपने ' जीव ' नाम रखा, तबसे यह कभी स्थिर नहीं हुआ ॥१॥
( इस मायारुपी नाचमें ) नाना प्रकारकी वासनारुपी चोलियाँ तथा लोभ ( मोह ) आदि अनेक गहने पहनकर, जड़ - चेतन और जल - स्थल - आकाशमें ऐसा कौन - सा स्वाँग है जो मैंने नहीं किया ! ॥२॥
देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मनुष्य आदि ऐसा कोई भी नहीं बचा जिसके आगे मैंने हाथ न फैलाया हो ? परन्तु इनमेंसे किसीने मेरे दारुण दारिद्र्य, दोष और दुःखोंको दूर नहीं किया ॥३॥
मेरे नेत्र, पैर, हाथ, सुन्दर बुद्धि और बल सभी थक गये हैं । सारा संग मुझसे बिछुड़ गया है । अब तो हे रघुनाथजी ! यह संसारके भयसे व्याकुल और भीत दास आपकी शरण आया है ॥४॥
हे नाथ ! जिन गुणोंपर रीझकर आप प्रसन्न होते हैं, वह सब तो मैं भूल चुका हूँ । अब हे प्रभो ! इस तुलसीदासको अपने दरवाजेपर पड़ा रहने दीजिये ॥५॥