नाहिनै नाथ ! अवलंब मोहि आनकी ।
करम - मन - बचन पन सत्य करुनानिधे !
एक गति राम ! भवदीय पदत्रानकी ॥१॥
कोह - मद - मोह - ममतायतन जानि मन ,
बात नहिं जाति कहि ग्यान - बिग्यानकी ।
काम - संकलप उर निरखि बहु बासनहिं ,
आस नहिं एकहू आँक निरबानकी ॥२॥
बेद - बोधित करम धरम बिनु अगम अति ,
जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी ।
सिद्ध - सुर - मनुज दनुजादिसेवत कठिन ,
द्रवहिं हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी ॥३॥
भगति दुरलभ परम , संभु - सुक - मुनि - मधुप ,
प्यास पदकंज - मकरंद - मधुपानकी ।
पतित - पावन सुनत नाम बिस्रामकृत ,
भ्रमित पुनि समुझि चित ग्रंथि अभिमानकी ॥४॥
नरक - अधिकार मम घोर संसार - तम -
कूपकहिं , भूप ! मोहि सक्ति आपानकी ।
दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन ,
सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी ॥५॥
भावार्थः - हे नाथ ! मुझे और किसीका आसरा नहीं है । हे करुणानिधान ! मन , वचन और कर्मसे मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा है कि मुझे केवल एक आपकी जूतियोंका ही सहारा है ॥१॥
मेरा मन क्रोध , अभीमान , अज्ञान और ममताका स्थान है ; इसलिये ज्ञान - विज्ञानकी बात तो उसके लिये कही ही नहीं जा सकती । हदयमें अनेक कामनाओंके संकल्प और नाना प्रकारकी ( विषय - ) वासनाएँ देखकर मोक्षकी तो एक अंश भी आशा नहीं है ॥२॥
यद्यपि ( कर्म - धर्म - हीन होकर भी ) मेरे मनमें स्वर्ग जानेकी बड़ी लालसा लग रही है , पर वेदोक्त कर्म - धर्म किये बिना स्वर्गकी प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है । इसके सिवा सिद्ध , देवता , मनुष्य एवं राक्षसोंकी सेवा भी बड़ी कठिन है । ये लोग तभी प्रसन्न होंगे जब इनके लिये हठयोग किया जाय , यज्ञका भाग दिया जाय और प्राणोंकी बलि चढ़ायी जाय । ( यह सब भी मुझसे नहीं हो सकता , अतएव इन लोगोंकी कृपाकी आशा करना भी व्यर्थ है ) ॥३॥
भक्ति ( तो मुझ - सरीखे मनुष्यके लिये ) परम दुर्लभ है ; क्योंकि शिव , शुकदेव तथा मुनिरुप भौंरे भी आपके चरण - कमलोंके मधुर मकरन्दको पीनेके लिये सदा प्यासे ही बने रहते हैं ( इस रसको पीते - पीते जब वे भी नहीं अघाते तब मुझ - जैसा नीच तो किस गिनतीमें हैं ? ) हाँ , आपका नाम अवश्य ही पतितोंको पावन करनेवाला तथा शान्ति ( मोक्ष ) देनेवाला सुना जाता है ; किन्तु चित्तमें अभिमानकी गाँठें पड़ी रहनेके कारण ( राम - नामके साधनसे भी ) मन फिर भ्रम जाता है । ( मैं इतना बड़ा समझदार और विद्वान होकर मामूली राम - नाम लूँ , इस अभिमानके मरे राम - नामसे भी वंचित रह जाता हूँ ) ॥४॥
हे महाराज ! इन सब बातोंको देखते मेरा तो , बस , नरकमें ही जानेका अधिकार है , मेरे कर्मोंसे तो मैं घोर संसाररुपी अँधेरें कुएँमें पड़ा रहनेयोग्य ही हूँ , किन्तु इतनेपर भी मुझे आपका ही बल है । यह तुलसीदास अपने मनमें गुह , जटायु , गजेन्द्र और हनुमानकी जाति याद करके संसारके उस ( जन्म - मरण ) भयको कुछ भी नहीं समझता ( अन्त्यज , पशु और पक्षियोंतकका उद्धार हो गया है तब मेरा क्यों न होगा ? अर्थात् अवश्य होगा ) ॥५॥