बाप ! आपने करत मेरी घनी घटि गई ।
लालची लबारकी सुधारिये बारक , बलि ,
रावरी भलाई सबहीकी भली भई ॥१॥
रोगबस तनु , कुमनोरथ मलिन मनु ,
पर - अपबाद मिथ्या - बाद बानी हई ।
साधनकी ऐसी बिधि , साधन बिना न सिधि
बिगरी बनावै कृपानिधिकी कृपा नई ॥२॥
पतित - पावन , हित आरत - अनाथनिको ,
निराधारको अधार , दीनबंधु , दई ।
इन्हमें न एकौ भयो , बूझि न जूझ्यो न जयो ,
ताहिते त्रिताप - तयो , लुनियत बई ॥३॥
स्वाँग सूधो साधुको , कुचालि कलितें अधिक ,
परलोक फीकी मति , लोक - रंग - रई ।
बड़े कुसमाज राज ! आजुलौं जो पाये दिन ,
महाराज ! केहू भाँति नाम - ओट लई ॥४॥
राम ! नामको प्रताप जानियत नीके आप ,
मोको गति दूसरी न बिधि निरमई ।
खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु ,
रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई ॥५॥
भावार्थः - हे मेरे बापजी ! मैंने अपने ही हाथों अपनी करनी बहुत ही बिगाड़ डाली है , आपकी बलैया लेता हूँ , इस लोभी और झूठेकी बात एक बार तो सुधार दीजिये । क्योंकि जिस - जिसके साथ आपने भलाई की , उसीकी बात बन गयी ( दया करके आज मेरी भी बिगड़ी बना दीजिये ) ॥१॥
शरीर रोगी है , मन बुरी - बुरी कामनाओंसे मलिन हो रहा है और वाणी दूसरोंकी निन्दा करते और झूठ बोलते - बोलते नष्ट हो गयी है ; ( जिस तन - मन - वचनसे साधन होते हैं , वे तीनों ही साधनके योग्य नहीं रहे , परन्तु ) साधनोंका यह नियम है कि बिना साधे वे सिद्ध नहीं होते । इससे ( अब तो ) हे कृपानिधे ! आपकी एक कृपा ही ऐसी अनूठी है , जो मेरी बिगड़ी बातको बना देगी । ( आपकी कृपासे ही मुझ साधनहीनका सुधार हो सकता है ) ॥२॥
आप पापियोंको पवित्र करनेवाले , दुःखियों और अनाथोंके हितू , निराधारोंके आधार , दीनोंके बन्धु और ( स्वभाविक ही ) दयालु हैं । किन्तु , मैं तो इनमेंसे एक भी नहीं हूँ ( अहंकारके मारे मैंने अपनेको कभी पतित , दुःखी , दीन , अनाथ और निराधार माना ही नहीं । तब फिर आप इनके नाते मुझपर क्यों कृपा करेंगे ? ) । न तो मैंने विवेकसे अपने शत्रुओं ( काम , क्रोध , लोभ , मोह ) - के ही साथ युद्ध किया और न उनपर विजय ही प्राप्त की । इसीसे मैं दैहिक , भौतिक , और दैविक इन तीनों तापोंसे जल रहा हूँ ; जैसा बोया वैसा ही काट रहा हूँ ( किसे दोष दूँ ? ) ॥३॥
मेरा स्वाँग तो सीधे - सादे साधुका - सा है , पर पाप करनेमें मैं कलियुगसे भी बढ़ा हुआ हूँ । मेरी बुद्धिको परलोककी ( भगवत्सम्बन्धी ) बातें फीकी लगती हैं और वह संसारके रंगमें रँगी हुई है ( वह केवल विषय भोगोंके पाने - न - पानेकी उलझनमें फँसी रहती है ) । हे महाराज ! इस बड़े भारी दुष्ट - समाजके साथ आजतक जितने दिन बीते सो तो व्यर्थ चले ही गये , अब किसी - न - किसी तरह आपके नामका सहारा लिया है ॥४॥
हे श्रीरामजी ! आप भलीभाँति जानते हैं कि आपके नामका कैसा प्रताप है ! ( न मालूम मुझ - सरीखे कितने नामके प्रतापसे तर चुके हैं ) । मेरे लिये तो सिवा आपके नामके विधाताने दूसरी गति ही नहीं रची है । आपको असन्तुष्ट करनेके लायक मेरे करोड़ों कुकर्म हैं , किन्तु सन्तुष्ट करनेके लायक तो मेरी एक निर्लज्जता ही है । ( मेरी निर्लज्जतापर ही प्रसन्न होकर कृपा कीजिये ) ॥५॥