औरु कहँ ठौरु रघुबंस - मनि ! मेरे ।
पतित - पावन प्रनत - पाल असरन - सरन ,
बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि केरे ॥१॥
समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो ,
करत नहिं कान बिनती बदन फेरे ।
तदपि ह्वै निडर हौं कहौं करुना - सिंधु ,
क्योंऽब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे ॥२॥
मुख्य रुचि होत बसिबेकी पुर रावरे ,
राम ! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे ।
अगम अपबरग , अरु सरग सुकृतैकफल ,
नाम - बल क्यों बसौं जम - नगर नेरे ॥३॥
कतहुँ नहिं ठाउँ , कहँ जाउँ कोसलनाथ !
दीन बितहीन हौं , बिकल बिनु डेरे ।
दास तुलसिहिं बास देहु अब करि कृपा ,
बसत गज गीध ब्याधादि जेहि खेरे ॥४॥
भावार्थः - हे रघुवंशमणि ! मेरे लिये ( आपके चरणोंको छोड़कर ) और कहाँ ठौर है ? पापियोंको पवित्र करनेवाले , शरणागतोंका पालन करनेवाले एवं अनाथोंको आश्रय देनेवाले एक आप ही हैं । आपका - सा बाँका बाना किस बानेवालेका है ? ( किसीका भी नहीं ) ॥१॥
हे रघुनाथजी ! मेरे अपराधोंको मनमें समझकर , अत्यन्त क्रोधसे यद्यपि आप मेरी विनतीको नहीं सुनते और मेरी ओरसे अपना मुँह फेरे हुए हैं , तथापि मैं तो निर्भय होकर , हे करुणाके समुद्र ! यही कहूँगा कि मेरी बात सुनकर ( मेरी दीन पुकार सुनकर ) मेरी ओर देखे बिना आपसे कैसे रहा जाता है ? ( करुणाके सागरसे दीनकी आर्त पुकार सुनकर कैसे रहा जाय ? ) ॥२॥
( यदि आप मेरी मनः कामना पूछते हैं , तो सुनिये ) सबसे प्रधान रुचि तो मेरी रुचिको काम , क्रोध , लोभ और मोह आदिने घेर रखा है ( इनके आक्रमणसे वह कामना दब जाती है ) । मोक्ष तो दुर्लभ है , स्वर्ग मिलना भी कठिन है , क्योंकि वह केवल पुण्योंके फलसे ही मिलता है ( मैंने कोई उत्तम कर्म तो किये नहीं , फिर स्वर्ग कैसे मिले ? ) अब रही यमपुरी ( नरक ) सो उसके समीप भी आपके नामके बलसे नहीं जा सकता ( राम - नाम लेनेवालेको यमराज अपनी पुरीके निकट ही नहीं आने देते ) ॥३॥
( इससे ) अब मुझे कहीं भी रहनेके लिये स्थान नहीं रहा , आप ही बताइये कहाँ जाऊँ ? हे कोसलनाथ ! मैं निर्धन और दीन हूँ ( धनी होता , तो कहीं घर ही बनवा लेता ), आश्रय - स्थानके न होनेसे व्याकुल हो रहा हूँ । इससे हे नाथ ! इस तुलसीदासको कृपा कर उसी गाँवमें रहनेकी जगह दे दीजिये जिसमें गजेन्द्र , जटायु , व्याध ( वाल्मीकि ) आदि रहते हैं ॥४॥