राग धनाश्री
मन ! माधवको नेकु निहारहि ।
सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों, छिन - छिन प्रभुहिं सँभारहि ॥१॥
सोभा - सील - ग्यान - गुन - मंदिर, सुंदर परम उदारहि ।
रंगज संत, अखिल अघ - गंजन, भंजन बिषय - बिकारहि ॥२॥
जो बिनु जोग - जग्य - ब्रत - संयम गयो चहै भव - पारहि ।
तौ जनि तुलसिदास निसि - बासर हरि - पद - कमल बिसारहि ॥३॥
भावार्थः- हे मन ! माधवकी ओर तनिक तो देख ! अरे दुष्ट ! सुन, जैसे कंगाल क्षण - क्षणमें अपना धन सँभालता है, वैसे ही तू अपने स्वामी श्रीरामजीका स्मरण किया कर ॥१॥
वे श्रीराम शोभा, शील, ज्ञान और सदगुणोंके स्थान हैं । वे सुन्दर और बड़े दानी हैं । संतोंको प्रसन्न करनेवाले, समस्त पापोंके नाश करनेवाले और विषयोंके विकारको मिटानेवाले हैं ॥२॥
यदि तू बिना ही योग, यज्ञ, व्रत और संयमके संसार - सागरसे पार जाना चाहता है तो हे तुलसीदास ! रात - दिनमें श्रीहरिके चरण - कमलोंको कभी मत भूल ॥३॥