राग बिलावल
ऐसी तोहि न बूझिये हनुमान हठीले ।
साहेब कहूँ न रामसे, तोसे न उसीले ॥१॥
तेरे देखत सिंहके सिसु मेंढक लीले ।
जानत हौं कलि तेरेऊ मन गुनगन कीले ॥२॥
हाँक सुनत दसकंधके भये बंधन ढीले ।
सो बल गयो किधौं भये अब गरबगहीले ॥३॥
सेवकको परदा फटे तू समरथ सीले ।
अधिक आपुते आपुनो सुनि मान सही ले ॥४॥
साँसति तुलसीदासकी सुनि सुजस तुही ले ।
तिहूँकाल तिनको भलौ जे राम - रँगीले ॥५॥
भावार्थः-- हे हठीले ( भक्तोंके कष्ट बरबस दूर करनेवाले ) हनुमान् ! तुझे ऐसा नहीं चाहिये । श्रीराम - सरीखे तो कहीं स्वामी नहीं हैं और तेरे समान कहीं सहायक नहीं हैं ॥१॥
यह होते हुए भी आज तेरे देखते - देखते मुझ सिंहके बच्चेको ( तुझ सिंहरुप सहायकके शरणागत मुझ बालकको ) कलियुगरुपी मेंढक ( जिसकी तेरे सामने कोई हस्ती नहीं हैं ) निगले लेता है । मालूम होता है, इस कलियुगने तेरे भक्तवत्सलता, शरणागतकी रक्षाके लिये हठकारिता उदारता आदि गुणोंको कील दिया है ॥२॥
एक दिन तेरी हुंकार सुनते ही रावणके अंग - अंगके जोड़ ढीले पड़ गये थे, वह तेरा बल - पराक्रम आज कहाँ गया ? अथवा क्या तू अब दयालुके बदले घमंडी हो गया है ? ॥३॥
आज तेरे सेवकका पर्दा फट रहा है उसे तू सी दे - जाती हुई इज्जतको बचा दे, तू बड़ा समर्थ है, पहले तो तू सेवकको अपनेसे अधिक मानता, उसकी सुनता, सहता था, पर अब क्या हो गया ? ॥४॥
इस तुलसीदासके संकटको सुनकर उसे दूर करके यह सुयश तू ही ले ले । वास्तवमें तो जो रामके रँगीले भक्त हैं उनका तीनों कालोंमें कल्याण ही है ॥५॥