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विनयावली १७९

विनय पत्रिका - विनयावली १७९

विनय पत्रिकामे , भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


तौ हौं बार बार प्रभुहि पुकारिकै खिझावतो न ,

जो पै मोको होतो कहूँ ठाकुर - ठहरु ।

आलसी - अभागे मोसे तैं कृपालु पाले - पोसे ,

राजा मेरे राजाराम , अवध सहरु ॥१॥

सेये न दिगीस , न दिनेस , न गनेस , गौरी ,

हित कै न माने बिधि हरिउ न हरु ।

रामनाम ही सों जोग - छेम , नेम , प्रेम - पन ,

सुधा सो भरोसो एहु , दूसरो जहरु ॥२॥

समाचार साथके अनाथ - नाथ ! कासों कहौं ,

नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरु ।

निज काज , सुरकाज , आरतके काज , राज !

बूझिये बिलंब कहा कहूँन न गहरु ॥३॥

रीति सुनि रावरी प्रतीति - प्रीति रावरे सों ,

डरत हौं देखि कलिकालको कहरु ।

कहेही बनैगी कै कहाये , बलि जाउँ , राम ,

' तुलसी ! तू मेरो , हारि हिये न हहरु ' ॥४॥

भावार्थः - हे नाथ ! यदि मुझे कहीं कोई दूसरा स्वामी या ( आश्रयके लिये ) स्थान मिल जाता , तो मैं बार - बार आपको पुकारकर अप्रसन्न न करता । हे महाराज रामचन्द्रजी ! मुझ - सरीखे आलसियों और अभागोंको तो आपने ही पाला - पोसा है । अतएव हे कृपालो ! आप ही मेरे राजा हैं और अयोध्या ही मेरे ( रहनेके ) लिये शहर है ॥१॥

न तो मैंने दिक्पाल , सूर्य , गणेश और पार्वतीहीकी प्रेमपूर्वक सेवा की है और न ( श्रद्धासहित ) ब्रह्मा , शिव और विष्णुकी ही उपासना की है । मेरा तो योग - क्षेम एक राम - नामसे ही है । ( राम - नामसे ही मुझे तो अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्त साधनकी रक्षा हुई है ) उसीसे मेरा नेम है , उसीसे प्रेम है और उसीमें अनन्यता है । उसका भरोसा मेरे लिये अमृतके समान है और दूसरे सब साधन विषके समान हैं ॥२॥

हे अनाथोंके नाथ ! मेरे साथी चोर और चौकीदार सब आपहीके हाथमें हैं , इसस्से उनकी बात और किससे कहूँ । ( आप काम , क्रोध , लोभ , मोह आदि चोरोंको भगाकर विवेक - वैराग्यरुपी चौकीदारोंको सचेत कर देंगे तो मेर राम - नाम - प्रेमरुपी धन बच जायगा । हे महाराज ! जरा विचारिये , आपने अपने कामोंमें , देवताओंके कामोंमें और दीन - दुःखियोंके कामोंमें क्या कभी देर की है ? फिर मेरे ही लिये क्यो इतना विलम्ब हो रहा है ? ॥३॥

आपकी रीति ( पतित - पावनता , शरणागत वत्सलता आदि ) सुनकर मुझे आपपर विश्वास और प्रेम हो गया है , किन्तु कलियुगकी अनीति देखकर मैं डरता हूँ ( कि कहीं वह मुझे आपसे विमुखकर विषयोंमें न फँसा दे ) । हे रघुनाथजी ! मैं आपकी बलैया लेता हूँ ; मेरी तो आपके इतना कहनेसे या किसीके द्वारा कहलानेसे ही बनेगी कि ' हे तुलसी ! तू मेरा है , निराश होकर हदयमें मत घबरा ' ॥४॥

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Last Updated : November 13, 2010

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