तौ हौं बार बार प्रभुहि पुकारिकै खिझावतो न ,
जो पै मोको होतो कहूँ ठाकुर - ठहरु ।
आलसी - अभागे मोसे तैं कृपालु पाले - पोसे ,
राजा मेरे राजाराम , अवध सहरु ॥१॥
सेये न दिगीस , न दिनेस , न गनेस , गौरी ,
हित कै न माने बिधि हरिउ न हरु ।
रामनाम ही सों जोग - छेम , नेम , प्रेम - पन ,
सुधा सो भरोसो एहु , दूसरो जहरु ॥२॥
समाचार साथके अनाथ - नाथ ! कासों कहौं ,
नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरु ।
निज काज , सुरकाज , आरतके काज , राज !
बूझिये बिलंब कहा कहूँन न गहरु ॥३॥
रीति सुनि रावरी प्रतीति - प्रीति रावरे सों ,
डरत हौं देखि कलिकालको कहरु ।
कहेही बनैगी कै कहाये , बलि जाउँ , राम ,
' तुलसी ! तू मेरो , हारि हिये न हहरु ' ॥४॥
भावार्थः - हे नाथ ! यदि मुझे कहीं कोई दूसरा स्वामी या ( आश्रयके लिये ) स्थान मिल जाता , तो मैं बार - बार आपको पुकारकर अप्रसन्न न करता । हे महाराज रामचन्द्रजी ! मुझ - सरीखे आलसियों और अभागोंको तो आपने ही पाला - पोसा है । अतएव हे कृपालो ! आप ही मेरे राजा हैं और अयोध्या ही मेरे ( रहनेके ) लिये शहर है ॥१॥
न तो मैंने दिक्पाल , सूर्य , गणेश और पार्वतीहीकी प्रेमपूर्वक सेवा की है और न ( श्रद्धासहित ) ब्रह्मा , शिव और विष्णुकी ही उपासना की है । मेरा तो योग - क्षेम एक राम - नामसे ही है । ( राम - नामसे ही मुझे तो अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्त साधनकी रक्षा हुई है ) उसीसे मेरा नेम है , उसीसे प्रेम है और उसीमें अनन्यता है । उसका भरोसा मेरे लिये अमृतके समान है और दूसरे सब साधन विषके समान हैं ॥२॥
हे अनाथोंके नाथ ! मेरे साथी चोर और चौकीदार सब आपहीके हाथमें हैं , इसस्से उनकी बात और किससे कहूँ । ( आप काम , क्रोध , लोभ , मोह आदि चोरोंको भगाकर विवेक - वैराग्यरुपी चौकीदारोंको सचेत कर देंगे तो मेर राम - नाम - प्रेमरुपी धन बच जायगा । हे महाराज ! जरा विचारिये , आपने अपने कामोंमें , देवताओंके कामोंमें और दीन - दुःखियोंके कामोंमें क्या कभी देर की है ? फिर मेरे ही लिये क्यो इतना विलम्ब हो रहा है ? ॥३॥
आपकी रीति ( पतित - पावनता , शरणागत वत्सलता आदि ) सुनकर मुझे आपपर विश्वास और प्रेम हो गया है , किन्तु कलियुगकी अनीति देखकर मैं डरता हूँ ( कि कहीं वह मुझे आपसे विमुखकर विषयोंमें न फँसा दे ) । हे रघुनाथजी ! मैं आपकी बलैया लेता हूँ ; मेरी तो आपके इतना कहनेसे या किसीके द्वारा कहलानेसे ही बनेगी कि ' हे तुलसी ! तू मेरा है , निराश होकर हदयमें मत घबरा ' ॥४॥