दीनबन्धु दूसरो कहँ पावों ?
को तुम बिनु पर - पीर पाइ है ? केहि दीनता सुनावों ॥१॥
प्रभु अकृपालु , कृपालु अलायक , जहँ - जहँ चितहिं डोलावों ।
इहै समुझि सुनि रहौं मौन ही , कहि भ्रम कहा गवावों ॥२॥
गोपद बुड़िबे जोग करक करौं , बातनि जलधि थहावों ।
अति लालची , काम - किंकर मन , मुख रावरो कहावों ॥३॥
तुलसी प्रभु जियकी जानत सब , अपनो कछुक जनावों ।
सो कीजै , जेहि भाँति छाँड़ि छल द्वार परो गुन गावों ॥४॥
भावार्थः - ( तुम - सा ) दीनबन्धु दूसरा कहाँ पाऊँगा ? हे नाथ ! तुमको छोड़कर पराये ( भक्तके ) दुःखसे दुःखी होनेवाला दूसरा कौन है ? फिर अपनी दीनताका दुखड़ा किसके आगे रोता फिरुँ ? ॥१॥
जहाँ - जहाँ मैं अपने मनको डुलाता हूँ , वहाँ - वहाँ कहीं तो ऐसे स्वामी मिलते हैं जिनके दया नहीं है , और कहीं ऐसे मिलते हैं जो दयालु तो हैं , पर अयोग्य ( असमर्थ ) हैं । यह सुन - समझकर चुप ही रह जाता हूँ , क्योंकि ऐसोंके सामने कुछ कहकर अपना भरम ही क्यों खोऊँ ? ( भेद भी खुल जायगा और कुछ होगा भी नहीं ) ॥२॥
कर्म तो ऐसे नीच किया करता हूँ कि गायके खुरमें डूब जाऊँ ( चुल्लूभर पानीमें डूब मरुँ ), पर बातें बनाकर समुद्रकी थाह ले रहा हूँ । ( कोरी कथनी - ही - कथनी है , करनी रत्तीभर भी नहीं है ) । मेरा मन बड़ा ही लालची है और कामका गुलाम है , परन्तु मुखसे तुम्हारा दास बनता फिरता हूँ ॥३॥
हे प्रभु ! आप तुलसीके मनकी तो सभी ( बुरी भली ) बातें जानतें हैं , तो भी मैं अपनी कुछ बातें बतलाना चाहत हूँ । अब तो - कुछ ऐसा उपाय किजीये जिससे कपट छोड़कर ( शुद्ध हदयसे ) आपके द्वारपर पड़ा - पड़ा केवल आपके गुण ही गाया करुँ ॥४॥