नाथ ! गुनगाथ सुनि होत चित चाउ सो ।
राम रीझिबेको जानौं भगति न भाउ सो ॥१॥
करम , सुभाउ , काल , ठाकुर न ठाउँ सो ।
सुधन न , सुतन न , सुमन , सुआउ सो ॥२॥
जाँचौं जल जाहि कहै अमिय पियाउ सो ।
कासों कहौं काहू सों न बढ़त हियाउ सो ॥३॥
बाप ! बलि जाउँ , आप करिये उपाउ सो ।
तेरे ही निहारे परै हारेहू सुदाउ सो ॥४॥
तेरे ही सुझाये सूझै असुझ सुझाउ सो ।
तेरे ही बुझाये बूझै अबुझ बुझाउ सो ॥५॥
नाम - अवलंबु - अंबु दीन मीन - राउ सो ।
प्रभुसों बनाइ कहौं जीह जरि जाउ सो ॥६॥
सब भाँति बिगरी है एक सुबनाउ - सो ।
तुलसी सुसाहिबहिं दियो है जनाउ सो ॥७॥
भावार्थः - हे नाथ ! आपके गणोंकी गाथा सुनकर मेरे चित्तमें चावसा होता है , किन्तु हे रामजी ! जिस भक्ति और भावसे आप प्रसन्न होते हैं , उसे मैं नहीं जानता ॥१॥
कारण कि न तो मेरे कर्म अच्छे हैं , न स्वभाव उत्तम है , और न समय अच्छा है ( कलियुग है ); न कोई मालिक है , न कहीं ठौर - ठिकाना है , न ( साधनरुपी ) उत्तम धन है , न सुन्दर ( सेवापरायण ) शरीर है , न ( परमार्थमें लगनेवाला ) उत्तम मन है और न ( भजनसे पवित्र हुई ) उत्तम आयु ही है । सारांश , भगवत्प्राप्तिका एक भी साधन मेरे पास नहीं है , सब प्रकारसे निराधार हूँ ॥२॥
जिससे मैं ( प्यासके मारे ) पानी माँगता हूँ , वह उलटा मुझसे ही अमृत पिलानेके लिये कहता है । मैं अपनी बात किससे कहूँ ? किसीसे भी कहनेकी हिम्मत - सी नहीं पड़ती ॥३॥
हे बापजी ! बलिहारी ! आप ही मेरे लिये वैसा कोई अच्छा उपाय कर दीजिये । क्योंकि आपके ( कृपादृष्टिसे ) देखते ही हारनेपर भी अच्छा दाँव - सा हाथ लग जाता है । भाव , बड़े - बड़े पापी भी आपकी कृपासे वैकुण्ठके अधिकारी हो जाते हैं ॥४॥
आप यदि सुझा दें तो अदृश्य वस्तु भी दीखने लगती हैं , और आपके समझा देनेपर नहीं समझमें आनेवाला ( आपका स्वरुप ) पदार्थ भी समझमें आ जाता है ; अब आप उसे ही सुझा और समझा दीजिये ॥५॥
देखिये , आपके नामका जो अवलम्बन है , वही तो पानी है और उसमें रहनेवाला मैं दीन मीनोंका राजा - सा हूँ , बड़े भारी मत्स्यके समान हूँ । मैं जो प्रभुके सामने इसमें कुछ भी बनावटी बात कहता होऊँ तो मेरी यह जीभ जल जाय ॥६॥
मेरी बात सभी तरहसे बिगड़ चुकी है , केवल एक ही अच्छा बानक - सा बना हुआ है , और वह यह कि तुलसीदासने यह बात अपने दयालु स्वामीको जना दी है । ( अब स्वामी आप ही बिगड़ी बनावेंगे ) ॥७॥