तुम जनि मन मैलो करो , लोचन जनि फेरो ।
सुनहु राम ! बिनु रावरे लोकहु परलोकहु कोउ न कहूँ हितु मेरो ॥१॥
अगुन - अलायक - आलसी जानि अधम अनेरो ।
अधनु
स्वारथके साथिन्ह तज्यो तिजराको - सो टोटक , औचट उलटि न हेरो ॥२॥
भगतिहीन , बेद - बाहिरो लखि कलिमल घेरो ।
देवनिहू देव ! परिहरयो , अन्याव न तिनको हौं अपराधी सब केरो ॥३॥
नामकी ओट पेट भरत हौं , पै कहावत चेरो ।
जगत - बिदित बात ह्वै परी , समुझिये धौं अपने , लोक कि बेद बड़ेरो ॥४॥
ह्वैहै जब - तब तुम्हहिं तें तुलसीको भलेरो ।
दिन - हू - दिन देव ! बिगरि है , बलि जाउँ , बिलंब किये , अपनाइये सबेरो ॥५॥
दीन
भावार्थः - हे श्रीरामजी ! आप मुझपर मन मैला न कीजिये , मेरी ओरसे अपनी ( कृपाकी ) नजर न फिराइये ( मुझको दोषी समझकर न तो क्रोध कीजिये और न अपनी कृपादृष्टि ही हटाइये ) । हे नाथ ! सुनिये , इस लोक और परलोकमें आपको छोड़कर मेरा कल्याण करनेवाला कोई दूसरा नहीं है ॥१॥
मुझे गुणहीन , नालायक , आलसी , नीच अथवा दरिद्र और निकम्मा समझकर ( जगतके ) स्वार्थके संगियोंने तिजारीके टोटकेकी तरह छोड़ दिया और फिर भूलकर भी पलटकर मुझे नहीं देखा ! ( स्वार्थ छूटते ही ऐसा छोड़ दिया कि फिर कभी यादतक नहीं किया ) ॥२॥
मुझे भक्तिहीन , वेदोक्त मार्गसे बाहर एवं कलियुगके पापोंसे धिरा हुआ देखकर , हे नाथ ! देवताओंने भी छोड़ दिया । इसमें उनका कोई अन्याय भी नहीं है , क्योंकि मैं सभीका अपराधी हूँ ॥३॥
मैं तो बस , अपके नामकी ओट लेकर पेट भर रहा हूँ , इतनेपर भी आपका दास कहलाता हूँ और यह बात सारा संसार जान गया है । अब आप ही विचार कीजिये कि संसार बड़ा है या वेद ? ( वेदोंकी विधिको देखते तो मैं आपका दास नहीं हूँ , परन्तु जब संसार मुझको आपका दास मानता और कहता है , तब आपको भी यही स्वीकार कर लेना चाहिये । ) ॥४॥
तुलसीका भला तो जब कभी होगा तब आपके ही द्वारा होगा । ( आखिर जब आपको मेरा कल्याण करना ही पड़ेगा तो शीघ्र ही कर देना उत्तम हैं ) मैं आपकी बलैया लेता हूँ , यदि आप देर करेंगे , तो यह गरीब दिन - पर - दिन बिगड़ता ही जायगा । ( तब सुधारनेमें भी अधिक कष्ट होगा ) इसलिये मुझे शीघ्र ही अपना लीजिये ॥५॥