दीनबंधु ! दूरि किये दीनको न दूसरी सरन ।
आपको भले हैं सब , आपनेको कोऊ कहूँ ,
सबको भलो है राम ! रावरो चरन ॥१॥
पाहन , पसु , पतंग , कोल , भील , निसिचर
काँच ते कृपानिधान किये सुबरन ।
दंडक - पुहुमि पाय परसि पुनीत भई ,
उकठे बिटप लागे फूलन - फरन ॥२॥
पतित - पावन नाम बाम हू दाहिनो , देव !
दुनी न दुसह - दुख - दूषन - दरन ।
सीलसिंधु ! तोसों ऊँची - नीचियौ कहत सोभा ,
तोसो तुही तुलसीको आरति - हरन ॥३॥
भावार्थः - हे दीनबन्धो ! यदि आपने इस दीनको ( अपनी शरणसे ) हटा दिया तो फिर इसे और कहीं शरण न मिलेगी । क्योंकि अपनी भलाई चाहनेवाले तो प्रायः सभी हैं , किन्तु अपने दासोंका भला करनेवाले तो आपके चरण ही हैं , ( आपके चरणोंके आश्रयसे भले - बुरे सभीका कल्याण होता है ) ॥१॥
पत्थरकी शिला ( अहल्या ), पशु ( बंदर , रीछ ), पक्षी ( जटायु ), कोल - भील , राक्षस ( विभीषण ) आदिको हे कृपानिधान ! आपने काँचसे सोना बना दिया ( विषयी थे जिनको मुक्त कर दिया ) । दण्डकवनकी भूमि आपके चरणोंका स्पर्श होते ही पवित्र हो गयी और उखड़े हुए सूखे पेड़ फिर फूलने - फलने लगे ॥२॥
आपका पतित - पावन नाम जो आपसे विमुख हैं उनका भी कल्याण करता है ( शत्रुभावसे भजनेवाले भी तर जाते हैं ) । हे देव ! संसारमें असह्य दुःखों और पापोंका नाश करनेवाला आपको छोड़कर दूसरा कोई नहीं है । आप शीलके समुद्र हैं , अतएव आपसे नीची - ऊँची बात कहनेमें भी शोभा ही है ( अधिक क्या कहूँ ) । तुलसीके दुःख दूर करनेवाले तो बस आपसरीखे एक आप ही हैं ( इसीसे शरण पड़ा हूँ ) ॥३॥