राम - से प्रीतमकी प्रीति - रहित जीव जाय जियत ।
जेहि सुख सुख मानि लेत, सुख सो समुझ कियत ॥१॥
जहँ - जहँ जेहि जोनि जनम महि, पताल, बियत ।
तहँ - तहँ तू बिषय - सुखहिं, चहत लहत नियत ॥२॥
कत बिमोह लट्यो, फट्यो गगन मगन सियत ।
तुलसी प्रभु - सुजस गाइ, क्यों न सुधा पियत ॥३॥
भावार्थः- श्रीराम - सरीखे प्रीतमसे प्रेम न करके यह जीव व्यर्थ ही जीता है; अरे ! जिस ( विषय - सुख ) को तू सुख मान रहा है, तनिक विचात तो कर, वह सुख कितना - सा है ? ॥१॥
जहाँ - जहाँ, जिस - जिस योनिमें - पृथ्वी, पाताल और स्वर्गमें तूने जन्म लिया, तहाँ - तहाँ तूने जिस विषय - सुखकी कामना की, वही प्रारब्धके अनुसार तुझे मिला ( परन्तु कहीं भी तू परम सुखी तो नहीं हुआ ? ) ॥२॥
क्यों मोहमें फँसकर फटे आकाशके सीनेमें तल्लीन हो रहा है ? भाव यह है कि जैसे आकाशका सीना असम्भव है, वैसे ही सांसारिक विषय - भोगोंमें आनन्द मिलना असम्भव है । इसलिये हे तुलसी ! यदि तुझे आनन्दहीकी इच्छा है, तो प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका सुन्दर गुण - गानकर अमृत क्यों नहीं पीता ( जिससे अमर होकर आनन्दरुप ही बन जाय । ) ॥३॥