सो धौं को जो नाम - लाज तें, नहिं राख्यो रघुबीर ।
कारुनीक बिनु कारन ही हरि हरी सकल भव - भीर ॥१॥
बेद - बिदित, जग - बिदित अजामिल बिप्रवंधु अघ - धाम ।
घोर जमालय जात निवार्यो सुत - हित सुमिरत नाम ॥२॥
पसु पामर अभिमान - सिंधु गज ग्रस्यो आइ जब ग्राह ।
सुमिरत सकृत सपदि आये प्रभु, हरयो दुसह उर दाह ॥३॥
ब्याध, निषाद, गीध, गनिकादिक, अगनित औगुन - मूल ।
नाम - ओटतें राम सबनिकी दूरि करी सब सूल ॥४॥
केहि आचरन घाति हौं तिनतें, रघुकुल - भूषन भूप ।
सीदत तुलसिदास निसिबासर पर्यो भीम तम - कूप ॥५॥
भावार्थः- हे रघुवीर ! ऐसा कौन है, जिसे आपने अपने नामकी लाजसे अपनी शरणमें नहीं रखा ? हे हरि ! आप तो बिना ही कारण करुणा करनेवाले और ( जन्म - मरणरुपी ) संसारके भयको दूर करनेवाले हैं ॥!॥
वेदमें प्रकट है और संसारमें भी प्रसिद्ध है कि अजामिल जातिका ब्राह्मण महान् पापोंका स्थान था । यमलोक जाते समय जब उसने पुत्रके बहाने आपका ' नारायण ' नाम लिया तब आपने उसे यमलोक जानेसे रोक दिया ॥२॥
जब मगरने महान् अभिमानी पामर पशु हाथीको पकड़ लिया, तब उसके एक ही बार स्मरण करनेपर, हे प्रभो ! आप वहाँ दौड़े आये और उसकी दुःसह हार्दिक पीड़ाको मिता दिया ( मगरसे छुड़ाकर उसे परमधाम प्रदान कर दिया ) ॥३॥
व्याध ( वाल्मीकि ), निषाद ( गुह ), गीध ( जटायु ), गणिका ( पिंगला ) इत्यादि अगणित जीव जो पापोंकी जड़ थे, परन्तु हे रामजी ! आपने अपने नामकी ओटसे इन सबकी सारी पीड़ाओंका नाश कर दिया ॥४॥
हे रघुवंशभूषण महाराज ! मैं इन सबोंसे किस आचरणमें कम हूँ ? फिर भी मैं तुलसीदास रात - दिन भयानक अज्ञानरुपी कुएँमें पड़ा दुःख भोग रहा हूँ ( सबको निकाला है तो अब मुझे भी निकालिये ) ॥५॥