साहिब उदास भये दास खास खीस होत
मेरी कहा चली ? हौं बजाय जाय रह्यो हौं ।
लोकमें न ठाउँ , परलोकको भरोसो कौन ?
हौं तो , बलि जाउँ , रामनाम ही ते लह्यो हौं ॥१॥
करम , सुभाउ , काल , काम , कोह , लोभ , मोह
ग्राह अति गहनि गरीबी गाढ़े गह्यो हौं ।
छोरिबेको महाराज , बाँधिबेको कोटि भट ,
पाहि प्रभु ! पाहि , तिहुँ ताप - पाप दह्यो हौं ॥२॥
रीझि - बूझि सबकी प्रतीति - प्रीति एही द्वार ,
दूधको जर्यो पियत फूँकि फूँकि मह्यो हौं ।
रटत - रटत लट्यो , जाति - पाँति - भाँति घट्यो ,
जूठनिको लालची चहौं न दूध - नह्यो हौं ॥३॥
अनत चह्यो न भलो , सुपथ सुचाल चल्यो
नीके जिय जानि इहाँ भलो अनचह्यो हौं ।
तुलसी समुझि समुझायो मन बार बार ,
अपनो सो नाथ हू सों कहि निरबह्यो हौं ॥४॥
भावार्थः - जब मालिक उदासीन हो जाता है तब खास नौकर भी बरबाद हो जाता है , फिर मेरी तो बात ही क्या है ? मैं तो डंकेकी चोट दुःखोंमें बहा चला जा रहा हूँ । जब मेरे लिये इस लोकमें ही कहीं ठौर नहीं है , तब परलोकका क्या भरोसा करुँ ? हे श्रीरामजी ! मैं आपकी बलैया लेता हूँ , मैं तो एक आपके नामहीमे हाथ बिक चुका हूँ ( मेरा लोक - परलोक तो उसीसे बनेगा ) ॥१॥
कर्म , स्वभाव , काल , काम , क्रोध , लोभ और मोहरुपी बड़े - बड़े ग्राहोंने और ( साधनहीनतारुपी ) घोर दरिद्रताने मुझको बड़े जोरसे पकड़ रखा है । हे महाराज ! बाँधनेके लिये करोड़ों योद्धा हैं , परन्तु बन्धनसे छुड़ानेके लिये तो केवल एक आप ही हैं । अतएव हे प्रभो ! मेरी रक्षा कीजिये , रक्षा कीजिये । मैं पापरुपी तीनों तापोंसे जल रहा हूँ ( अपनी कृपादृष्टीकी सुधावृष्टिसे इन तापोंको शान्त कीजिये ) ॥२॥
हे प्रभो ! ( दूसरे किसके पास जाऊँ ? ) सबकी रीझ - बूझ और प्रीति - विश्वास एक आपके ही खजानेसे अपने सेवकोंको कुछ दिया करते हैं , परन्तु वे मुक्ति नहीं दे सकते । उन सबकी पूजा भी आपकी ही पूजा होती हैं , क्योंकि सबके मूल आप ही हैं । ) मैं तो दूधका जला मट्ठा भी फूँक - फूँककर पीता हूँ । भाव यह कि आपको छोड़कर दूसरोंको भजनेसे कभी परमसुख और दिव्य शान्ति नहीं मिली , इसलिये बहुत सावधान होकर चलता हूँ । सुखके लिये देवताओंको पुकारते - पुकारते हार गया और जाति - पाँति तथा चाल - चलन सभीसे हाथ धो बैठा । इसलिये अब मैं के ल आपके जूठनका ही लालची हूँ । मैं दूधसे नहीं नहाना चाहता । भाव , मुझे स्वर्गके ऐश्वर्यकी इच्छा नहीं है , मैं तो केवल आपके चरणोंमें पड़े रहना चाहता हूँ ॥३॥
मैं और कहीं ( दूसरोंकी शरण लेकर ) सुखमार्गपर अच्छी चाल चलकर अपना कल्याण नहीं चाहता हूँ और यहाँ ( आपके शरणमें ) मैं आदर न पाकर भी अच्छी तरह हूँ । ( आपके अनोखे विरदके भरोसे निर्भय और निश्चिन्त पड़ा हूँ ) । तुलसीने समझकर अपने मनको बार - बार समझा दिया है और वह अपने नाथसे भी कहकर निश्चिन्त हो गया है कि उसका निर्वाह आपके ही हाथमें हैं ॥४॥