जो पै कृपा रघुपति कृपालुकी, बैर औरके कहा सरै ।
होइ न बाँको बार भगतको, जो कोउ कोटि उपाय करै ॥१॥
तकै नीचु जो मीचु साधुकी, सो पामर तेहि मीचु मरै ।
बेद - बिदित प्रहलाद - कथा सुनि, को न भगति - पथ पाउँ धरै ? ॥२॥
गज उधारि हरि थप्यो बिभीषन, ध्रुव अबिचल कबहुँ न टरै ।
अंबरीष की साप सुरति करि, अजहुँ महामुनि ग्लानि गरै ॥३॥
सों धौं कहा जु न कियो सुजोधन, अबुध आपने मान जरै ।
प्रभु - प्रसाद सौभाग्य बिजय - जस, पांडवनै बरिआइ बरै ॥४॥
जोइ जोइ कूप खनैगो परकहँ, सो सठ फिरि तेहि कूप परै ।
सपनेहुँ सुख न संतद्रोहीकहँ, सुरतरु सोउ बिष - फरनि फरै ॥५॥
हैं काके द्वै सीस ईसके जो हठि जनकी सीवँ चरै ।
तुलसिदास रघुबीर - बाहुबल सदा अभय काहू न डरै ॥६॥
भावार्थः- यदि कृपालु रघुनाथजीकी कृपा है, तो दूसरोंके वैर करनेसे उनका क्या काम निकल सकता है ? भक्तका बाल भी बाँका नहीं होता, चाहे कोई करोड़ों उपाय क्यों न करे ॥१॥
जो नीच संतकी मौत विचाराता है, वह पामर स्वयं उसी मौतमे मरता है । प्रह्लादकी कथा वेदोंमें प्रसिद्ध है, उसे सुनकर ऐसा कौन ( अभागा ) होगा, जो भक्ति - मार्गपर पैर न रखेगा, यानी भक्ति न करेगा ? ॥२॥
श्रीहरिने गजराजका उद्धार किया, विभीषणको राज्यसिंहासनपर बैठाया, ध्रुवको ऐसा अटल पद दे दिया जो कभी हटता ही नहीं और अम्बरीषकी तो बात ही निराली है, महामुनि ( दुर्वासा ) ने जो उनको शाप थ, उसका परिणाम याद करके अब भी वे ग्लनिसे गले जाते हैं, लाजसे मरे जाते हैं ॥३॥
दुर्योधनने अपनी जानमें, ऐसी कौन सी बुराई है, जो पाण्डवोंके साथ नहीं की । वह मूर्ख अपने ही घमंडमें जलता रहा । पर भगवानकी कृपासे सौभाग्य, विजय और यशने पाण्डवोंको ही हठपूर्वक अपनाया ॥४॥
जो दूसरेके लिये कुआँ खोदेगा, वह दुष्ट स्वयं उसीमें गिरेगा । संतोंके साथ वैर करनेवालेको स्वप्नमें भी सुख नहीं हो सकता । उसके लिये तो कल्पवृक्ष भी जहरीले फल ही फलेगा ॥५॥
किसके दो सिर हैं जो भगवानके भक्तकी सीमा लाँघेगा ? हे तुलसीदास ! जिसके श्रीरघुनाथजीका बाहु - बल सहायक है, वह सदा निर्भय है, किसीसे भी नहीं डर सकता ॥५॥