कैसे देउँ नाथहिं खोरि ।
काम - लोलुप भ्रमत मन हरि भगति परिहरि तोरि ॥१॥
बहुत प्रीति पुजाइबे पर , पूजिबे पर थोरि ।
देत सिख सिखयो न मानत , मूढ़ता असि मोरि ॥२॥
किये सहित सनेह जे अघ हदय राखे चोरि ।
संग - बस किये सुभ सुनाये सकल लोक निहोरि ॥३॥
करौं जो कछु धरौं सचि - पचि सुकृत - सिला बटोरि ।
पैठि उर बरबस दयानिधि दंभ लेत अँजोरि ॥४॥
लोभ मनहिं नचाव कपि ज्यों गरे आसा - डोरि ।
बात कहौं बनाइ बुध ज्यों , बर बिराग निचोरि ॥५॥
एतेहुँ पर तुम्हरो कहावत , लाज अँचई घोरि ।
निलजता पर रीझि रघुबर , देहु तुलसिहिं छोरि ॥६॥
भावार्थः - स्वामीको कैसे दोष दूँ ? हे हरे ! मेरा मन तुम्हारी भक्तिको छोड कर कामनाओंमे फँसा हुआ इधर - उधर भटका करता है ॥१॥
अपने पुजानेंमें तो मेरा बड़ा प्रेम है , ( सदा यही चाहता हूँ , कि लोग मुझे ज्ञानीभक्त मानकर पूजा करें ; ) किन्तु तुम्हें पूजनेमें मेरी बहुत ही कम प्रीति है । दूसरोंको तो खूब सीख दिया करता हूँ , पर स्वयं किसीकी शिक्षा नहीं मानता । मेरी ऐसी मूर्खता है ॥२॥
जिन - जिन पापोंको मैंने बड़े अनुरागसे किया था , उन्हें तो हदयमें छिपाकर रखता हूँ । पर कभी किसी अच्छे संगके प्रभावसे ( बिना ही प्रेम ) मुझसे जो कोई अच्छे काम बन गये हैं , उन्हें दुनियाको निहोरा कर - कर सुनाता फिरता हूँ । भाव यह कि मुझे कोई भी पापी न समझकर सब लोग बड़ा धर्मात्मा समझें ॥३॥
कभी जो कुछ सत्कर्म बन जाता है उसे खेतमें पड़े हुए अन्नके दानोंकी तरह बटोर - बटोरकर रख लेता हूँ , किन्तु हे दयानिधान ! दम्भ जबरदस्ती हदयमें घुसकर उसे बाहर निकाल फेंकता है । भाव यह है कि दम्भ बढ़कर थोड़े - बहुत सुकृतको भी नष्ट कर देता है ॥४॥
इसके सिवा लोभ मेरे मनको आशारुपी रस्सीसे इस तरह नचा रहा है , जैसे बाजीगर बंदरके गलेमें डोरी बाँधकर उसे मनमाना नचाता है । ( इतनेपर भी मैं दम्भसे ) एक बड़े पण्डितकी नाईं परम वैराग्यके तत्त्वकी बातें बना - बनाकर सुनाता फिरता हूँ ॥५॥
इतना ( दम्भी ) होनेपर भी मैं तुम्हारा ( दास ) कहाता हूँ । लाजको तो मानो मैं घोलकर ही पी गया हूँ । हे रघुनाथजी ! तुम उदार हो , इस निर्लज्जतापर ही रीझकर तुलसीका बन्धन काट दो । ( मुझे भव - बन्धनसे मुक्त कर दो ) ॥६॥