राग बसन्त
बंदौ रघुपति करुना - निधान । जाते छूटै भव - भेद - ग्यान ॥१॥
रघुबंश - कुमुद - सुखप्रद निसेस । सेवत पद - पंकज अज महेस ॥२॥
निज भक्त - हदय - पाथोज - भृंग । लावन्य बपुष अगनित अनंग ॥३॥
अति प्रबल मोह - तम - मारतंड । अग्यान - गहय - पावक प्रचंड ॥४॥
अभिमान - सिंधु - कुंभज उदार । सुररंजन, भंजन भूमिभार ॥५॥
रागादि - सर्पगन - पन्नगारि । कंदर्प - नाग - मृगपति, मुरारि ॥६॥
भव - जलधि - पोत चरनारबिंद । जानकी - रवन आनंद - कंद ॥७॥
हनुमंत - प्रेम - बापी - मराल । निष्काम कामधुक गो दयाल ॥८॥
त्रैलोक - तिलक, गुनगहन राम । कह तुलसिदास बिश्राम - धाम ॥९॥
भावार्थः-- मैं करुणानिधान श्रीरघुनाथजीकी वन्दना करता हूँ, जिससे मेरा सांसारिक भेद - ज्ञान छूट जाय ॥१॥
श्रीरामजी रघुवंशरुपी कुमुदको चन्द्रमाके समान प्रफुल्लित करनेवाले हैं । ब्रह्मा और शिव जिनके चरणकमलोंकी सेवा किया करते हैं ॥२॥
जो अपने भक्तोंके हदयकमलमें भ्रमरकी भाँति निवास करते हैं । जिनके शरीरका लावण्य असंख्य कामदेवोंके समान हैं ॥३॥
जो बड़े प्रबल मोहरुपी अन्धकारके नाश करनेके लिये सूर्य और अज्ञानरुपी गहन वनके भस्म करनेके लिये अग्निरुप हैं ॥४॥
जो अभिमानरुपी समुद्रके सोखनेके लिये उदार अगस्त्य हैं और देवताओंको सुख देनेवाले तथा ( दैत्योंका दलनकर ) पृथ्वीका भार उतारनेवाले हैं ॥५॥
जो राग - द्वेषादि सर्पोंके भक्षण करनेके लिये गरुड़ और कामरुपी हाथीको मारनेके लिये सिंह हैं तथा मुर नामक दैत्यको मारनेवाले हैं ॥६॥
जिनके चरणकमल संसारसागरसे पार उतारनेके लिये जहाज हैं, ऐसे श्रीजानकीरमण रामजी आनन्दकी वर्षा करनेवाले हैं ॥७॥
जो हनुमानजीके प्रेमरुपी बावड़ीमें हंसके समान सदा विहार करनेवाले और निष्काम भक्तोंके लिये कामधेनुके समान परम दयालु हैं ॥८॥
तुलसीदास यही कहता है कि तीनों लोकोंके शिरोमणि, गुणोंके वन श्रीरामचन्द्रजी ही केवल शान्तिके स्थान हैं ॥९॥