नाथ ! कृपाहीको पंथ चितवत दीन हौं दिनराति ।
होइ धौं केहि काल दीनदयालु ! जानि न जाति ॥१॥
सुगुन , ग्यान - बिराग - भगति , सु - साधननिकी पाँति ।
भजे बिकल बिलोकि कलि अघ - अवगुननिकी थाति ॥२॥
अति अनीति - कुरीति भइ भुइँ तरनि हू ते ताति ।
जाउँ कहँ ? बलि जाउँ , कहूँ न ठाउँ मति अकुलाति ॥३॥
आप सहित न आपनो कोउ , बाप ! कठिन कुभाँति ।
स्यामघन ! सीचिये तुलसी , सालि सफल सुखाति ॥४॥
भावार्थः - हे नाथ ! मैं दीन दिन - रात आपकी कृपाकी ही बाट देखता रहता हूँ । हे दीनदयालो ! पता नहीं , आपकी वह कृपा मुझपर कब होगी ? ॥१॥
( दैवी सम्पदाके ) सदगुण , ज्ञान , वैराग्य और भक्ति आदि सुन्दर साधनोंके समूह कलियुगको देखते ही व्याकुल होकर भाग गये । रह गये पापों और दुर्गुणोंके समूह ॥२॥
बड़े - बड़े अन्यायों और अनाचारोंसे पृथ्वी सूर्यसे भी अधिक गरम हो गयी है ( यहाँ सिवा जलनेके शान्तिका कोई साधन ही नहीं रहा ) अब मैं कहाँ जाऊँ ? मैं आपकी बलैया ले रहा हूँ । मुझे और कहीं ठौर - ठिकाना नहीं है । मेरी बुद्धि बड़ी ही व्याकुल हो रही है ॥३॥
हे बापजी ! इस अपनी देहके सहित कोई भी अपना नहीं है ( किसका सहारा लूँ ) । सभी कठोर दुराचारी दिखायी देते हैं । हे घनश्याम ! यह तुलसीरुपी फूली - फली धानकी खेती सूखी जा रही है , अब भी मेघ बनकर ( कृपा जलकी वर्षासे ) इसे सींच दीजि ये ॥४॥