जैसो हौं तैसो राम रावरो जन , जनि परिहरिये ।
कृपासिंधु , कोसलधनी ! सरनागत - पालक , ढरनि आपनी ढरिये ॥१॥
हौं तौ बिगरायल और को , बिगरो न बिगारिये ।
तुम सुधारि आये सदा सबकी सबही बिधि , अब मेरियो सुधरिये ॥२॥
जग हँसिहै मेरे संग्रहे , कत इहि डर डरिये ।
कपि - केवट कीन्हे सखा जेहि सील , सरल चित , तेही सुभाउ अनुसरिये ॥३॥
अपराधी तउ आपनो , तुलसी न बिसरिये ।
दृटियो बाँह गरे परै फुटेहु बिलोचन पीर होत हित कीरिये ॥४॥
भावार्थः - हे श्रीरामजी ! मैं ( भला - बुरा ) कैसा भी हूँ , पर हूँ तो आपका दास ही , इससे मुझे त्यागिये नहीं । हे कोसलनाथ ! आप कृपाके समुद्र और शरणागतोंका पालन करनेवाले हैं । अपनी इस शरणागतवत्सलताकी रीतिपर ही चलिये ॥१॥
मैं तो ( काम , क्रोध आदि ) दूसरोंके द्वारा पहले ही बिगाड़ा हुआ हूँ , इस बिगड़े हुएको ( शरणमें न रखकर और ) न बिगाड़िये । आप तो सदा ही सबकी सब तरहसे सुधारते आये हैं , अब मेरी भी सुधार दीजिये ॥२॥
मुझे अपनानेमें जगत् आपकी हँसी करेगा , आप इस डरसे क्यों डर रहे हैं ? ( आपका तो सदासे यह बाना ही है । ) आपने अपने जिस शील और सरल चित्तसे बंदरों और केवटको अपना मित्र बनाया था , मेरे साथ भी उसी स्वभावके अनुसार बर्ताव कीजिये ॥३॥
यद्यपि मैं अपराधी हूँ , पर हूँ तो आपका ही । इसलिये तुलसीको आप न भुलाइये । ( अपना ) टूटा हुआ भी हाथ गले बँध जाता है और फूटी हुई आँखमें भी जब दर्द होता है , तब उसके अच्छे करानेकी चेष्टा की ही जाती है । ( इसी प्रकार मैं भी यद्यपि टूटी बाँह और फूटी आँखके समान किसी कामका नहीं हूँ तथापि आपका ही हूँ , इसलिये आप मुझे कैसे छोड़ सकते हैं ? ) ॥४॥