जाके गति है हनुमानकी ।
ताकी पैज पूजि आई, यह रेखा कुलिस पषानकी ॥१॥
अघटित - घटन, सुघट - बिघटन, ऐसी बिरुदावलि नहिं आनकी ।
सुमिरत संकट - सोच - बिमोचन, मूरति मोद - निधानकी ॥२॥
तापर सानुकूल, गिरिजा, हर, लषन, राम अरु जानकी ।
तुलसी कपिकी कृपा - बिलोकनि, खानि सकल कल्यानकी ॥३॥
भावार्थः-- जिसको ( सब प्रकारसे ) श्रीहनुमानजीका आश्रय है, उसकी प्रतिज्ञा पूरी हो ही गयी । यह सिद्धान्त वज्र ( हीरे ) - की लकीरके समान अमिट है ॥१॥
क्योंकि श्रीहनुमानजी असम्भव घटनाको सम्भव और सम्भवको असम्भव करनेवाले हैं, ऐसे यशका बाना दुसरे किसीका भी नहीं हैं । श्रीहनुमानजीकी आनन्दमयी मूर्तिका स्मरण करते ही सारे संकट और शोक मिट जाते हैं ॥२॥
सब प्रकारके कल्याणोंकी खानि श्रीहनुमानजीका कृपादृष्टि जिसपर है, हे तुलसीदास ! उसपर पार्वती, शंकर, लक्ष्मण, श्रीराम और जानकीजी सदा कृपा किया करती हैं ॥३॥