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हनुमंत स्तुति २

विनय पत्रिका - हनुमंत स्तुति २

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


जयति कर्मटाधीर, मृगराज - विक्रम, महादेव, मुद - मंगलालय, कपाली ।

मोह - मद - क्रोध - कामादि - खल - संकुला, घोर संसार - निशि किरणमाली ॥१॥

जयति लसदंजनाऽदितिज, कपि - केसरी - कश्यप - प्रभव, जगदार्त्तिहर्त्ता ।

लोक - लोकप - कोक - कोकनद - शोकहर, हंस हनुमान कल्याणकर्त्ता ॥२॥

जयति सुविशाल - विकराल - विग्रह, वज्रसार सर्वांग भुजदण्ड भारी ।

कुलिशनख, दशनवर लसत, बालधि बृहद, वैरि - शस्त्रास्त्रधर कुधरधारी ॥३॥

जयति जानकी - शोच - संताप - मोचन, रामलक्ष्मणानंद - वारिज - विकासी ।

कीश - कौतुक - केलि - लूम - लंका - दहन, दलन कानन तरुण तेजरासी ॥४॥

जयति पाथोधि - पाषाण - जलयानकर, यातुधान - प्रचुर - हर्ष - हाता ।

दुष्ट रावण - कुंभकर्ण - पाकरिजित - मर्मभित् , कर्म - परिपाक - दाता ॥५॥

जयति भुवनैकभूषण, विभीषणवरद, विहित कृत राम - संग्राम साका ।

पुष्पकारुढ़ं सौमित्री - सीता - सहित, भानु - कुलभावनु - कीरति - पताका ॥६॥

जयतिपर - यंत्रमंत्राभिचार - ग्रसन, कारमन - कूट - कृत्यादि - हंता ।

शाकिनी - डाकिनी - पूतना - प्रेत - वेताल - भूत - प्रमथ - यूथ - यंता ॥७॥

जयति वेदान्तविद विविध - विद्या - विशद, वेद - वेदांगविद ब्रह्मवादी ।

ज्ञान - विज्ञान - वैराग्य - भाजन विभो, विमल गुण गनति शुकनारदादी ॥८॥

जयति काल - गुण - कर्म - माया - मन्थन, निश्चलज्ञान, व्रत - सत्यरत, धर्मचारी ।

सिद्ध - सुरवृंद - योगींद्र - सेवित सदा, दास तुलसी प्रणत भय - तमारी ॥९॥

भावार्थः-- हे हनुमानजी ! तुम्हारी जय हो । तुम बंदरोंके राजा, सिंहके समान पराक्रमी, देवताओंमें श्रेष्ठ, आनन्द और कल्याणके स्थान तथा कपालधारी शिवजीके अवतार हो । मोह, मद, क्रोध, काम आदि दुष्टोंसे व्याप्त घोर संसाररुपी अन्धकारमयी रात्रिके नाश करनेवाले तुम साक्षात् सूर्य हो ॥१॥

तुम्हारी जय हो । तुम्हारा जन्म अंजनीरुपी अदिति ( देवमाता ) और वानरोंमें सिंहके समान केसरीरुपी कश्यपसे हुआ है । तुम जगतके कष्टोंको हरनेवाले हो तथा लोक और लोकपालरुपी चकवा - चकवी और कमलोंका शोक नाश करनेवाले साक्षात् कल्याण - मूर्ति सूर्य हो ॥२॥

तुम्हारी जय हो । तुम्हारा शरीर बड़े भारी हैं तथा वज्रके समान नख और सुन्दर दाँत शोभित हो रहे हैं । तुम्हारी पूँछ बड़ी लम्बी है, शत्रुओंके संहारके लिये तुम अनेक प्रकारके अस्त्र, शस्त्र और पर्वतोंको लिये रहते हो ॥३॥

तुम्हारी जय हो । तुम श्रीसीताजीके शोक - सन्तापका नाश करनेवाले और श्रीराम - लक्ष्मणके आनन्दरुपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले हो । बन्दर - स्वभावसे खेलमें ही पूँछसे लंका जला देनेवाले, अशोक - वनको उजाड़नेवाले, तरुण तेजके पुंज मध्याह्नकालके सूर्यरुप हो ॥४॥

तुम्हारी जय हो । तुम समुद्रपर पत्थरका पुल बाँधनेवाले, राक्षसोंके महान् आनन्दके नाश करनेवाले तथा दुष्ट रावण, कुम्भकर्ण और मेघनादके मर्म - स्थानोंको तोड़कर उनके कर्मोंका फल देनेवाले हो ॥५॥

तुम्हारी जय हो । तुम त्रिभुवनके भूषण हो, विभिषणको राम - भक्तिका वर देनेवाले हो और रणमें श्रीरामजीके साथ बड़े - बड़े काम करनेवाले हो । लक्ष्मण और सीताजीसहित पुष्पक - विमानपर विराजमान सूर्यकुलके सूर्य श्रीरामजीकी कीर्ति - पताका तुम्हीं हो ॥६॥

तुम्हारी जय हो । तुम शत्रुओंद्वारा किये जानेवाले यन्त्र - मन्त्र ओर अभिचार ( मोहनउच्चाटन आदि प्रयोगों तथा जादू - टोने ) - को ग्रसनेवाले तथा गुप्त मारणप्रयोग और प्राणनाशिनी कृत्या आदि क्रूर देवियोंका नाश करनेवाले हो । शाकिनी, डाकिनी, पूतना, प्रेत, वेताल, भूत और प्रमथ आदि भयानक जीवोंके नियन्त्रणकर्ता शासक हो ॥७॥

तुम्हारी जय हो । तुम वेदान्तके जाननेवाले, नाना प्रकारकी विद्याओंमें विशारद, चार वेद और छः वेदांग ( शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष ) - के ज्ञाता तथा शुद्ध ब्रह्मके स्वरुपका निरुपण करनेवाले हो । ज्ञान, विज्ञान और वैराग्यके पात्र हो अर्थात् तुम्हीने इनको अच्छी तरहसे जाना है । तुम समर्थ हो । इसीसे शुकदेव और नारद आदि देवर्षि सदा तुम्हारी निर्मल गुणावली गाया करते हैं ॥८॥

तुम्हारी जय हो । तुम काल ( दिन, घड़ी, पल आदि ), त्रिगुण ( सत्त्व, रज, तम ), कर्म ( संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण ) और मायाका नाश करनेवाले हो । तुम्हारा ज्ञानरुप व्रत सदा निश्चल है तथा तुम सत्यपरायण और धर्मका आचरण करनेवाले हो । सिद्ध, देवगण और योगिराज सदा तुम्हारी सेवा किया करते हैं । हे भव - भयरुपी अन्धकारका नाश करनेवाले सूर्य ! यह दास तुलसी तुम्हारी शरण है ॥९॥

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Last Updated : August 19, 2009

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