नाथ सों कौन बिनती कहि सुनावौं ।
त्रिबिध बिधि अमित अवलोकि अघ आपने ,
सरन सनमुख होत सकुचि सिर नावौं ॥१॥
बिरचि हरिभगतिको बेष बर टाटिका ,
कपट - दल हरित पल्लवनि छावौं ।
नामलगि लाइ लासा ललित - बचन कहि ,
ब्याध ज्यों बिषय - बिहँगनि बझावौं ॥२॥
कुटिल सतकोटि मेरे रोमपर वारियहि ,
साधु गनतीमें पहलेहि गनावौं ।
परम बर्बर खर्ब गर्ब - पर्बत चढूयो ,
अग्य सर्बग्य , जन - मनि जनावौं ॥३॥
साँच किधौं झूठ मोको कहत कोउ
कोउ राम ! रावरो , हौं तुम्हरो कहावौं ।
बिरदकी लाज करि दास तुलसिहिं देव !
लेहु अपनाइ अब देहु जनि बावौं ॥४॥
भावार्थः - हे प्रभो ! आपको मैं किस तरह विनती कहकर सुनाऊँ ? तीन तरहके ( मन , वचन और कर्मसे उत्पन्न ) अपरिमित प्रकारोंसे किये जानेवाले अपने पापोंकी ओर देखकर जब मैं आपके शरणमें सम्मुख आना चाहता हूँ तब संकोचके मारे सिर नीचा हो जाता है ॥१॥
भगवद्भक्तोंका भेष बनाकर मानो सुन्दर ( धोखेकी ) टट्टी बनाता हूँ और कपटरुपी हरे - हरे पत्तोंसे उसे छा देता हूँ । आपके ( राम ) नामकी लग्गी लगाकर , मधुर वचनोंका लासा लगा देता हूँ ! और फिर बहेलियेकी भाँति विषय - रुपी पक्षियोंको फाँस लेता हूँ । ( लोगोंकी दृष्टिमें तिलक , माला , कण्ठी , राम - नामके गुणगान करनेवाला और मधुर वाणी बोलनेवाला महात्मा भक्त बना फिरता हूँ , परन्तु मन - ही - मन विषयोंका चिन्तन करता हुआ उन्हींकी ताकमें लगा रहता हूँ ) ॥२॥
मैं इतना बड़ा पापी हूँ कि मेरे एक रोमपर सौ करोड़ पापी निछावर किये जा सकते हैं , पर तो भी अपनेको संतोंकी गिनतीमें सबसे पहले गिनवाना चाहता हूँ , संत - शिरोमणि बननेका दावा रखता हूँ । मैं बड़ा ही असभ्य और नीच हूँ , परन्तु घमण्डरुपी पहाड़पर चढ़ा बैठा हूँ । इसीसे तो मूर्ख होनेपर भी अपनेको सर्वज्ञ और भक्तश्रेष्ठ बतलाता हूँ ॥३॥
हे भगवन् ! कह नहीं सकता कि झूठ है या सच , पर कोई - कोई मेरे लिये यह कहते हैं कि ' यह रामजीका है ' और मैं भी आपहीका कहलाया चाहता हूँ । हे देव ! इससे अब अपने बानेकी लाज रखकर इस तुलसीदासको अपना ही लीजिये ( क्योंकि जब आपका कहलाकर भी दुष्ट ही रहूँगा तो आपके विरदकी लाज कैसे रहेगी ? ) अब टालमटोल न कीजिये ॥४॥