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विनयावली ७३

विनय पत्रिका - विनयावली ७३

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


सुनहु राम रघुबीर गुसाईं, मन अनीति - रत मेरो ।

चरन - सरोज बिसारि तिहारे, निसिदिन फिरत अनेरो ॥१॥

मानत नाहिं निगम - अनुसासन, त्रास न काहू केरो ।

भूल्यो सूल करम - कोलुन्ह तिल ज्यों बहु बारनि पेरो ॥२॥

जहँ सतसंग कथा माधवकी, सपनेहुँ करत न फेरो ।

लोभ - मोह - मद - काम - कोह - रत, तिन्हसों प्रेम घनेरो ॥३॥

पर - गुन सुनत दाह, पर - दूषन सुनत हरख बहुतेरो ।

आप पापको नगर बसावत, सहि न सकत पर खेरो ॥४॥

साधन - फल, श्रुति - सार नाम तव, भव - सरिता कहँ बेरो ।

सो पर - कर काँकिनी लागि सठ, बेंचि होत हठि चेरो ॥५॥

कबहुँक हौं संगति - प्रभावतें, जाउँ सुमारग नेरो ।

तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो ॥६॥

इक हौं दीन, मलीन, हीनमति, बिपतिजाल अति घेरो ।

तापर सहि न जाय करुनानिधि, मनको दुसह दरेरो ॥७॥

हारि पर्यो करि जतन बहुत बिधि, तातें कहत सबेरो ।

तुलसिदास यह त्रास मिटै जब हदय करहु तुम डेरो ॥८॥

भावार्थः- हे रामजी ! हे रघुनाथजी ! हे स्वामी ! सुनिये - मेरा मन अन्यायमें लगा हुआ है, आपके चरण - कमलोंको भूलकर दिन - रात इधर - उधर ( विषयोंमें ) भटकता फिरता है ॥१॥

न तो वह वेदकी ही आज्ञा मानता है और न उसे किसीका डर ही है । वह बहुत बार कर्मरुपी कोल्हूमें तिलकी तरह पेरा जा चुका है, पर अब उस कष्टको भूल गया है ॥२॥

जहाँ सत्संग होता है, भगवानकी कथा होती है, वहाँ वह मन स्वप्नमें भी भूलकर भी नहीं जाता । परन्तु जो लोभ, मोह, मद, काम और क्रोधमें मग्न रहते हैं, उन्हीं ( दुष्टों ) से वह अधिक प्रेम करता है ॥३॥

दूसरोंके दोष सुनकर बड़ा भारी हरखाता है । स्वयं तो पापोंका नगर बसा रहा है, पर दूसरेज्के ( पापोंके ) खेड़ेको भी नहीं देख सकता । भाव यह कि अपने बड़े - बड़े पापोंतर तो कुछ भी ध्यान नहीं देता, परन्तु दूसरोंके जरासे पापको देखकर ही उनकी निन्दा करता है ॥४॥

आपका राम - नाम सारे साधनोंका फल, वेदोंका सार और संसाररुपी नदीसे पार जानेके लिये बेड़ा है, ऐसे राम - नामको यह दुष्ट दूसरेके हाथमेंख कौड़ीकौड़ीके लिये बेचता हुआ जबरदस्ती उनका गुलाम बनता फिरता है ॥५॥

यदि कभी सत्संगके प्रभावसे भगवतके मार्गके समीप जाता भी हूँ तो विषयोंकी आसक्ति उभड़कर मनको तुरंत सांसारिक बुरी कामनारुपी गड़हेमें धक्का दे देती है ॥६॥

एक तो मैं वैसे ही दीन, पापी और बुद्धिहीन हूँ तथा विपत्तियोंके जालमें खूब फँसा पड़ा हूँ, तिसपर, हे करुणानिधि ! मनके इस असह्य धक्केको मैं कैसे सह सकता हूँ ? ॥७॥

मैं अनेक यत्न करके हार गया इससे मैं पहलेसे ही कहे देता हूँ कि तुलसीदासका यह भय ( जन्म - मरणका त्रास ) तभी दूर होगा, जब आप उसके हदयमें निवास करेंगे ॥८॥

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Last Updated : March 24, 2010

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