कबहिं देखाइहौ हरि चरन ।
समन सकल कलेस कलि - मल , सकल मंगल - करन ॥१॥
सरद - भव सुंदर तरुनतर अरुन - बारिज - बरन ।
लच्छि - लालित - ललित करतल छबि अनूपम धरन ॥२॥
गंग - जनक अनंग - अरि - प्रिय कपट - बटु बलि - छरन ।
बिप्रतिय नृग बधिकके दुख - दोस दारुन दरन ॥३॥
सिद्ध - सुर - मुनि - बृंद - बंदित सुखद सब कहँ सरन ।
सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन - तरन ॥४॥
कृपासिंधु सुजान रघुबर प्रनत - आरति - हरन ।
दरस - आस - पियास तुलसीदास चाहत मरन ॥५॥
भावार्थः - हे हरे ! क्या कभी आप अपने उस पवित्र चरणोंका दर्शन करायेंगे जो समस्त क्लेशों और कलियुगके सभी पापोंके नाश करनेवाले और सम्पूर्ण कल्याणके कारण हैं ? ॥१॥
जिन ( चरणों ) - का रंग शरद ऋतुमें उत्पन्न , सुन्दर और तुरंतके खिले हुए लाल - लाल कमलोंके समान है , जिन्हें श्रीलक्ष्मीजी अपनी सुन्दर हथेलियोंसे दबाया करती हैं , और जो अतुलनीय शोभामय हैं ॥२॥
जो गंगाके पिता है ( जिन चरणोंसे गंगाकी उत्पत्ति हुई है ), कामदेवको भसम करनेवाले शिवजीके प्यारे हैं , तथा जिन्होंने कपट - ब्रह्माचारीका रुप धारण कर राजा बलिको छला है , जिन्होंने ( गौतम ) ब्राह्मणकी स्त्री अहल्याको और राजा नृगको ( शापसे छुड़ाकर परम सुख दिया ) और हिंसक निषादके सारे दुःख और घोर पाप दूर कर दिये ॥३॥
सिद्ध , देवता और मुनियोंके समूह जिनकी सदा वन्दना किया करते हैं , जो सभीको सुख और शरण देनेवाले हैं ; एक बार भी जिनका हदयमें ध्यान करनेसे भक्त स्वयं तर जाता है तथा दूसरोंको तारनेवाला बन जाता है ॥४॥
हे कृपासागर सुचतुर रघुनाथजी ! आप शरणागतोंके दुःख दूर करनेवाले हैं । यह तुलसीदास अब आपके उन चरणोंके दर्शनकी आशारुपी प्यासके मारे मर रहा है । ( शीघ्र ही अपने चरण - कमल दिखाकर इसकी रक्षा कीजिये ) ॥५॥