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शिव स्तुति ५

विनय पत्रिका - शिव स्तुति ५

विनय पत्रिकामे, भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं।


कस न दीनपर द्रवहु उमाबर । दारुन बिपति हरन करुनाकर ॥१॥

बेद - पुरान कहत उदार हर । हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर ॥२॥

कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज । होइ प्रसन्न दीन्हेहु सिव पद निज ॥३॥

जो गति अगम महामुनि गावहिं । तव पुर कीट पतंगहु पावहिं ॥४॥

देहु काम - रिपु ! राम - चरन - रति ! तुलसिदास प्रभु ! हरहु भेद - मति ॥५॥

भावार्थः-- हे उमा - रमण ! आप इस दीनपर कैसे कृपा नहीं करते ? हे करुणाकी खानि ! आप घोर विपत्तियोंके हरनेवाले हैं ॥१॥

वेद - पुराण कहते हैं कि शिवजी बड़े उदार हैं, फिर मेरे लिये आप इतने अधिक कृपण कैसे हो गये ? ॥२॥

गुणनिधि नामक ब्राह्मणने आपकी कौन - सी भक्ति की थी, जिसपर प्रसन्न होकर आपने उसे अपना कल्याणपद दे दिया ॥३॥

जिस परम गतिको महान् मुनिगण भी दुर्लभ बतलाते हैं, वह आपकी काशीपुरीमें कीट - पतंगोंको भी मिल जाती हैं ॥४॥

हे कामारि शिव ! हे स्वामी !! तुलसीदासकी भेद - बुद्धि हरणकर उसे श्रीरामके चरणोंकी भक्ति दीजिये ॥५॥

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Last Updated : August 13, 2009

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