कस न दीनपर द्रवहु उमाबर । दारुन बिपति हरन करुनाकर ॥१॥
बेद - पुरान कहत उदार हर । हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर ॥२॥
कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज । होइ प्रसन्न दीन्हेहु सिव पद निज ॥३॥
जो गति अगम महामुनि गावहिं । तव पुर कीट पतंगहु पावहिं ॥४॥
देहु काम - रिपु ! राम - चरन - रति ! तुलसिदास प्रभु ! हरहु भेद - मति ॥५॥
भावार्थः-- हे उमा - रमण ! आप इस दीनपर कैसे कृपा नहीं करते ? हे करुणाकी खानि ! आप घोर विपत्तियोंके हरनेवाले हैं ॥१॥
वेद - पुराण कहते हैं कि शिवजी बड़े उदार हैं, फिर मेरे लिये आप इतने अधिक कृपण कैसे हो गये ? ॥२॥
गुणनिधि नामक ब्राह्मणने आपकी कौन - सी भक्ति की थी, जिसपर प्रसन्न होकर आपने उसे अपना कल्याणपद दे दिया ॥३॥
जिस परम गतिको महान् मुनिगण भी दुर्लभ बतलाते हैं, वह आपकी काशीपुरीमें कीट - पतंगोंको भी मिल जाती हैं ॥४॥
हे कामारि शिव ! हे स्वामी !! तुलसीदासकी भेद - बुद्धि हरणकर उसे श्रीरामके चरणोंकी भक्ति दीजिये ॥५॥