समरथ सुअन समीरके, रघुबीर - पियारे ।
मोपर कीबी तोहि जो करि लेहि भिया रे ॥१॥
तेरी महिमा ते चलैं चिंचिनी - चिया रे ।
अँधियारो मेरी बार क्यों, त्रिभुवन - उजियारे ॥२॥
केहि करनी जन जानिकै सनमान किया रे ।
केहि अघ औगुन आपने कर डारि दिया रे ॥३॥
खाई खोंची माँगि मैं तेरो नाम लिया रे ।
तेरे बल, बलि, आजु लौं जग जागि जिया रे ॥४॥
जो तोसों होतौ फिरौं मेरो हेतु हिया रे ।
तौ क्यों बदन देखावतो कहि बचन इयारे ॥५॥
तोसो ग्यान - निधान को सरबग्य बिया रे ।
हौं समुझत साईं - द्रोहकी गति छार छिया रे ॥६॥
तेरे स्वामी राम से, स्वामिनी सिया रे ।
तहँ तुलसीके कौनको काको तकिया रे ॥७॥
भावार्थः-- हे सर्वशक्तिमान् पवनकुमार ! हे रामजीके प्यारे ! तुझे मुझपर जो कुछ करना हो सो भैया अबी कर ले ॥१॥
तेरे प्रतापसे इमलीके चियें भी ( रुपये - अशरफीकी जगह ) चल सकते हैं; अर्थात् यदि तू चाहि तो मेरे जैसे निकम्मोंकी भी गणना भक्तोंसे हो सकती हैं । फिर मेरे लिये, हे त्रिभुवनउजागर ! इतना अँधेरा क्यों कर रखा है ? ॥२॥
पहले मेरी कौन - सी अच्छी करनी जानकर तूने मुझे अपना दास समझा था तथा मेरा सम्मान किया था और अब किस पाप तथा अवगुणसे मुझे हाथसे फेंक दिया, अपनाकर भी त्याग दिया ? ॥३॥
मैंने तो सदासे ही तेरे नामपर टुकड़ा माँगकर खाया है, तेरी बलैया लेता हूँ, मैं तो तेरे ही बलके भरोसेपर जगतमें उजागर होकर अबतक जीता रहा हूँ ॥४॥
जो मैं तुझसे विमुख होता तो मेरा हदय ही उसमें कारण होता, फिर मैं निज परिवारके मनुष्यकी तरह भली - बुरी सुनाकर तुझे अपना मुँह कैसे दिखाता ? ॥५॥
तू मेरे मनकी सब कुछ जानता है, क्योंकि तेरे समान ज्ञानकी खानि और सबके मनकी जाननेवाला दूसरा कौन है ? यह तो मैं भी समझता हूँ कि स्वामीके साथ द्रोह करनेवालेको नष्ट - भ्रष्ट हो जाना पड़ता है ॥६॥
तेरे स्वामी श्रीरामजी और स्वामिनी श्रीसीताजी - सरीखी हैं, वहाँ तुलसीदासका तेरे सिवा और किस मनुष्यका और किस वस्तुका सहारा है ? इसलिये तू ही मुझे वहाँतक पहुँचा दे ॥७॥